अभिजीत सिंह की कविताएं
- poemsindia
- Jan 31, 2022
- 5 min read
Updated: Dec 15, 2023

जब दुःख पैर पकड़ता है
अचानक ही हाथ काँपने लगते हैं दौड़ कर पकड़ने के लिए पास खड़ी दीवार के पैर मानो होंठ तक यह देह पानी में उतर आई हो खड़े रहते हुए कई आँखों के बीच कई दूसरे होंठों को देखते हुए लगता है गला सूख रहा है
कानों के पर्दे तक घनी आवाज़ों से लदी हुई एक लम्बी निराशा छुक-छुक करती हुई रेलगाड़ी सी आ जा रही होती है
आँखों की पुतलियों में कमरा बड़ा होता जाता है इतना कि कोनों में लगे मकड़ी के जाले सीलन की दरारें कहीं से आ रही किसी टूटी हुई शीशी में भरी होगी शायद कोई उधार लिये हुए अतीत की तेज़ बू जिसे इस काम से वहीं छोड़ दिया गया था कि वह आती रहे लगातार दिमाग़ में दागने कीलें जिन पर टाँगी जा सके स्मृतियों की तस्वीरें और फिर चढ़ा सकें दो टके की याददाश्त अपनी नालायक भुल्लकड़ी पर हार
जब दुःख पैर पकड़ता है तो जूते ढीले हो जाते हैं मोज़े गर्म होने लगते हैं कान लाल पड़ जाते हैं जीभ किसी बीहड़ में नंगी दौड़ जाती है और अक़्ल समुद्र तट पर इस दृश्य को कैनवस पर उतार रही होती है
लहरें आती हैं समुद्र अपना होश खो बैठता है घुटनों तक आ टकराता है पैंट भीग जाती है और आधा दुःख रेत जैसा बहकर सूर्यास्त बन जाता है
कमरे में फ़ोटो खिंच रही है आसमान में चिड़ियों का उड़ना नीचे इस चौकोर अनंत में तालियों जैसा सुनाई दे रहा है
किनारा देख रहा होता है कमरे के अंदर से तस्वीरों पर टकटकी लगाए स्मृतियों के बाल सहलाते हुए दुःख
गोद में आ बैठता है भरे कमरे में सभी के सामने
पैर निश्चिन्त हो जाते हैं पर पेट में शैले का जहाज़ डूबने को है पसलियों में दूर भागती हुई नादिया के चिल्लाने की आवाज़ अटकी हुई है प्लाथ के भुने हुए सर से कविताओं की ख़ुशबू नहीं आती है बस इतना है कि कोई उत्पीड़न का जला हुआ चेहरा देखना नहीं चाहता
सभी के सामने दुःख आ कर खड़ा हो जाता है यह सोच कर कि उसे दुःख की तरह देखा जाए पर उसे बिना बनाए बिस्तर तकिया चिट्टी लिफ़ाफ़ा आहें कैसे समाप्त कर पाएँगे कवि किसी भी कविता को
तो अब बस इसी के चलते कुछ ही पलों में पहला अंतिम दृश्य आने वाला है जिसके पश्चात कई और भी हैं पुचकारने के लिए
पर यह पहला अंतिम है और देखो लाल सूर्यास्त लाल चुम्बन में बदल गया देखो ना! लाल चुभन नीली देह पर चाँद बना रही है
सभी के सामने जैसे अब बस मरने वाला है दुःख दुःख ने माथा चूमा तो मैं समझ गया यह अंत है
अचानक ही
सूइसाइड
बिस्तर पर चढ़ के बच्चे कूदते हैं
और छलाँग लगा कर लांघ जाते हैं पूरा बचपन
बचपन जब ज़रा भी नहीं बचता तो अक्सर बिस्तर पर चढ़ने के बाद
नीचे आना भूल जाते हैं लोग
कह सकता हूँ कि कविता सिगरेट नहीं होती
छोटे से समय-टुकड़े जितनी वह उन दो उँगलियों के बीच जलती रही एक मटमैले काँच से जैसे आती है धूप छोटी चिड़िया जैसी कमरे में सुलगती रही
एक हाथ से दूसरे फिर तीसरे और ऐसे कई हाथों से कई उँगलियों में बच्चों जैसी खेलती रही बचपन का गला घोटती रही जिसे यूँ भी रेता गया जिस पर यूँ भी पड़े हैं निशान एक गहरी चोट के जो इलाज से नहीं जाते
वह जलती हुई उस वाक्य जैसी हो गयी जिसे कहा एक प्रकार से और सुना कई प्रकार से जाता है
समझे जाने पर तो वह वाक्य वाक्य होता भी नहीं है
पतली चादर होता है फुटपाथ पर पड़े घटिया पशुओं के ऊपर जो कुछ-कुछ शोरूम के अंदर घूम रही प्रजाति से मिलते-जुलते हैं उड़ता रहता है बन कर उनके बिछौने का कोना सर्द हवाओं में बन कर कटकटाते हुए दाँत ठंडी पड़ती हुई एड़ियों की दरारों में भरा शहर का कोलाहल जो कुड़ता रहता है समाज और दर्शन जिस पर तुम बेशर्मी से कविताएँ लिखते हो ना उसको तो गालियाँ देता है गालियाँ!
दो पत्थर रक्खे हुए वह दिन भर उन पर उकड़ू बैठे सड़क पर बाज़ार बाज़ार बाज़ार बाज़ार के कपड़े कपड़े कपड़े कपड़े से ढके लोग लोग लोग लोगों के चहरे घूरता है घूरता है जैसे अभी उतार फेंकेगा चादर और कूद पड़ेगा किसी वाक्य जैसी दिखने वाली वस्तु पर जो असल में वाक्य नहीं है उसे गाली बनाएगा और बक देगा कोई कोना पकड़ कर वह यह रोज़ करेगा मैं उसके भय में दूर से दूसरी गली में मुड़ जाऊँगा अंडरग्राउंड स्टेशन के सुनसान टनल में उसे देखते ही मैं काँप उठूँगा उसकी आँखें चमक उठेंगी वह उन आंखों के चमक उठने को गाली बनाएगा और मेरे सामने ही बक देगा मैं भाग जाऊंगा और सुन पाऊँगा टनल में उसके पागलपन का शोर जो ख़त्म हो जाएगा कुछ ही समय में और तलब करेगा नई आग नई सिगरेट में नए धुएँ के लिए नई धुंध में नई आवाज़ों में डर पैदा करेगा
यह घिनोनापन फुटपाथ पर सबसे उत्तम श्रेणी का सदाचार है यह ऐसा क्यों है यह फ़ुटपाथ बेहतर जानता होगा
श्रीकांत को कहते सुन सकता हूँ – ‘मैं उस आदर्श में पला है तो वह मेरी कला नहीं’
यहाँ सिगरेट का बुझना रात है उसका जलना चाँद के ना दिखने वाले हिस्से का चलना है पृथ्वी के इर्द-गिर्द पृथ्वी दूर भागती है क्योंकि पृथ्वी उस हिस्से को अच्छी तरह से जानती है पृथ्वी ने ही जन्मा है उसे और अब वह पृथ्वी के पीछे पड़ा है
काफ़ी फ़र्क़ है आइसबर्ग के बराबर के सोफ़े पर बैठकर सिगरेट फूँकते हुए फेपड़ों में और उन आँखों में जो सभ्यताओं से बहिष्कृत हैं जो सिगरेट नहीं फूँकते हैं समाज फूँकते हैं दिन-रात और समाज अपनी अस्थियों पर दो चिल्लर फेंकता है दो बार थूकता है दो फुट दूरी से भी डरके चलता है
मैं दो मिनट के लिए भी बर्दाश्त नहीं कर पाया यह सिगरेट-प्रसंग यह शीर्षक दो मिनट भी नहीं लगे और तय कर लिया यह सोच लिया निर्णय लेने से पहले कि निर्णय में अपनी ही तरफ़दारी करूँगा
वह जो निश्चित कर रही हो अनिश्चितता कहाँ कब क्यों कैसे निकले न निकले या निकले तो उदासी झुके सर ढके टखनों के साथ तो वह कविता क्यों होगी
वह जो दे रही है आपको आपके शहर के लिए नई परछाई जिसे बच्चे स्कूल प्रोजेक्ट में प्रदूषण बता रहे हैं वह जो जोड़े हुए है आपको कला से ऐसा तो वह कहती भी नहीं आपने ही सोचा दरअसल आपके भय का विस्तार है जो पहले अंगूठी में था फिर किसी उंगली में था जो आपके हाथों में थी फिर किसी मुँह में था जिन में आपकी उंगलियाँ रहीं जब यह कुछ ना रहा तो सब की जगह सिगरेट ले गयी
आपने इतना कुछ बना दिया है जिसे जो कुछ है भी नहीं तो मैं इतना तो कह सकता ही हूँ कि कविता सिगरेट नहीं होती
Bahut sundar kavitayen. Shubhkamnaye. Dr. Manghi Lal Yadav