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पधारो म्हारे देश

पधारो म्हारे देश

पधारो म्हारे देश

राजस्थान को “राजाओं की भूमि” कहा जाता है। राजस्थान में कई खूबसूरत कलात्मक और सांस्कृतिक परंपराएं हैं जो प्राचीन भारतीय जीवन शैली को दर्शाती हैं। यह राज्य विविधताओं से हर एक कदम पर आँखें मिलाएँ चलता है। यहाँ हर क्षेत्र की अपनी अलग पहचान है, यहाँ की भूमि के हर हिस्से की अपनी गाथा है, अपनी गंध है, संगीत और नृत्य की अपनी बोली है। वाद्य यंत्र और त्योहार भी हर क्षेत्र का भिन्न है। स्थानीय कला की विविधता और खूबसूरत परिदृश्यों की बात करें तो राजसमंद जिले के कुंभलगढ़ की दीवारों से लेकर उदयपुर की झीलें, पूर्व दिशा में चंबल नदी से लेकर पश्चिम में थार मरुस्थल, जयपुर में गणगौर त्योहार से लेकर भरतपुर में ब्रज होली, रावण हत्था (वाद्य यंत्र) के तारों की मधुर धुन से लेकर शहनाई-ढोल का संगीत प्रमुख आकर्षण हैं। जीरा सौंफ मिर्च और अन्य मसालों के उत्पादन में जोधपुर शहर और नागौर का गरिष्ठ भोजन सबसे अव्वल है। पुष्कर के घाटों-मंदिरों में हिंदू वास्तुकला और अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह शरीफ़ में इस्लामी वास्तुकला एक दूसरे से मात्र दस मील की दूरी पर स्थित हैं। राज्य की वास्तुकला का अद्भुत तरह से विस्तृत होने का प्रमुख कारण यह है कि राजस्थान की रियासतों में राजपूत शासन और मुगल शासन दोनों का प्रभाव रहा।

राजस्थान की लोक कला ने दृश्य प्रतिनिधित्व के माध्यम से सदियों से कहानियां सुनाई हैं। फड़ चित्रकारी और पिछवई चित्रकारी विशेष रूप से अपने अद्वितीय इतिहास, अलंकृत उत्पत्ति के लिए प्रसिद्ध है।

फड़ चित्रकारी

फड़ चित्रकारी की कला 700 वर्षों पूर्व भीलवाड़ा के पास शाहपुर शहर से जोशी पीढ़ी को विरासत में मिली थी। यह कला प्राचीन स्थानीय नायक देवताओं – पाबूजी और देवनारायण जी की जीवन शैली और धार्मिक कहानियों को दर्शाती है। मोटे सूती कपड़े पर उबले हुए चावल/गेहूं का लेप लगा कर सुखाने के बाद कैनवास की तरह इस्तेमाल किया जाता है और रंग, प्राकृतिक पत्थरों और खनिजों से प्राप्त किए जाते हैं। फड़ चित्रकारी की विशेषता यह है कि आकृतियों का निर्माण सपाट है और वे सभी दर्शकों का सामना करने के बजाय एक-दूसरे की ओर उन्मुख होती हैं। इन चित्रों को भोपा (पुजारी-गायकों) द्वारा ले जाया जाता है जो कहानियों का प्रदर्शन गायन के माध्यम से करते हैं, जिसमें रावन हट्टा (वाद्य यंत्र) का प्रयोग किया जाता है। पारंपरिक कलाकृति “पबूजी की फड़” 13 भुजाओं लंबी और देवनारायण जी की लगभग 30 फीट लंबी होने के साथ बड़ी होती हैं, मगर अब 2,4 और 6 फीट तक सीमित है।

पिछवई चित्रकारी

यह चित्रकला उदयपुर के पास नाथद्वारा शहर में प्रचलित है जो अब शहर का मुख्य निर्यात बन गया है। पिछवई चित्रकार कपड़े पर भगवान श्रीकृष्ण की कहानियों का वर्णन करते हैं। पिछवाइयों का मूलभूत उद्देश्य चित्रों के माध्यम से अनपढ़ों को कृष्ण की कथा सुनाना था।

घूमर

घूमर राज्य का पारंपरिक लोक नृत्य है। इसे भील जनजाति ने शुरू किया था और काफ़ी समय तक भील जाती के समुदाय तक ही सीमित था। भील जनजाति राजपूतों से निरंतर युद्ध में थी। अन्ततः जब दोनों के बीच युद्ध शांत हुआ तो राजपूत महिलाओं द्वारा नृत्य को अपनाया गया। इसे पोशाक (पारंपरिक वस्त्र) जिसमें कुंदन, दर्पण की कढ़ाई भारी मात्रा मे करी जाती है, पहन कर महिलाओं द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। संगीत-ताल का समावेश इसे और भव्य बना देता है। पद्मावत फिल्म के माध्यम से यह विश्व स्तर पर बहुत लोकप्रिय हुआ।

कालबेलिया

यूनेस्को द्वारा अमूर्त विरासत के रूप में मान्य कालबेलिया नृत्य कालबेलिया जनजाति की महिलाओं द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। महिलाएँ पारंपरिक वेशभूषा में अलंकृत होती हैं और पुरुषों द्वारा बजाए जाने वाले पारंपरिक वाद्य यंत्र ढोलक से उत्पन्न संगीत पर नृत्य करती हैं।

कठपुतली नृत्य

यह नृत्य लकड़ियों से बनी पुतलियों द्वारा प्रस्तुत किया जाता हैं। इसे भाट आदिवासियों ने हजारों वर्ष पूर्व शुरू किया था जिसमें लकड़ी की पुतलियों को चमकीले वस्त्र पहना कर, तारों से नियंत्रित और संचालित किया जाता था। यह ज्यादातर सामाजिक स्थिति या पौराणिक कथाओं को दर्शाने का माध्यम रहा है। कठपुतलियों से उत्पन्न आवाज़ें इस नृत्य को एक अद्भुत संगीत देती हैं।

मांड

इस राज्य का संगीत मुझे इसकी मिट्टी से जोड़कर रखता है। वाद्ययंत्र से निकले सुर मन को बाँधे रखते हैं। मांड लोक संगीत की सबसे परिष्कृत शैली है जो ठुमरी और ग़ज़ल के समान शांत हैं। मांड’ में प्रयुक्त होने वाले मुख्य वाद्य यंत्र कामाइचा (सत्रह स्ट्रिंग वाद्य यंत्र)और झांझ(लयबद्ध वाद्य यंत्र) हैं। सबसे प्रसिद्ध राजस्थानी मांड गायकों में से एक बीकानेर घराने की अल्लाह जिलाई बाई हैं, (पद्म श्री -1982) । मांड शैली का एक लोकप्रिय गीत है – केसरिया बालम।

” केसरिया बालम आवोनी, पधारो म्हारे देश जी, पियाँ प्यारी रा ढोला, आवोनी, पधारो म्हारे देश। आवण जावण कह गया, तो कर गया मोल अणेरगिणताँ गिणताँ घिस गई, म्हारे आंगलियाँ री रेख केसरिया बालम आवोनी, पधारो म्हारे देश। “

सांस्कृतिक दृष्टि से राजस्थान को भारत के समृध्द प्रदेशो में गिना जाता है। संस्कृति एक विशाल सागर है और इसके अंतर्गत गांव-गांव, ढाणी- ढाणी, चौपाल, चबूतरे महल – प्रसादों एवं घर – घर जन-जन में समाई हुई है। राजस्थान की संस्कृति का स्वरूप राजवाड़ा व्यवस्था में देखा जा सकता है। साहित्य और संगीत की अतिरिक्त कला- कोशल, शिल्प, महल, मंदिर, किले हमारी संस्कृति के दर्पण हैं।

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