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भोपाल-कुछ लैण्ड स्केप्स / हेमन्त देवलेकर

  • poemsindia
  • Jan 2, 2022
  • 2 min read
भोपाल-कुछ लैण्ड स्केप्स

सुंदरता वह प्रतिभा है जिसे रियाज़ की ज़रूरत नहीं भोपाल ऐसी ही प्रतिभा से सम्पन्न और सिद्ध.

यह शहर कविताएँ लिखने के लिये पैदा हुआ आप इसे पचमढ़ी का लाड़ला बेटा कह सकते हैं पहाड़ यहाँ के आदिम नागरिक झीलों ने आकर उनकी गृहस्थियाँ बसाई हैं.

यह शहर जितना पहाड़ों पर चढ़ा हुआ उतना ही झीलों में तैर रहा यह ऊँचाई और गहराई दोनों के प्रति आस्थावान

इस शहर में पानी की ख़दानें हैं जिनमें तैर रहा है मछलियों का अक्षय खनिज भंडार.

इस शहर में जितनी मीनारें हैं, उतने ही मंदिर भी, लेकिन बागीचों की तादाद उन दोनों से ज़्यादा.

रात भर चलते मुशायरों और कव्वालियों के जलसों में चाँद की तरह जागते इस शहर की नवाबी यादें गुंबदों के उखड़ते पलस्तरों में से आज भी झाँकती हैं.

इस शहर का सबसे खूबसूरत वक़्त शाम को झीलों के किनारे उतरता है और यह शहर अपनी कमर के पट्टे ढीले कर पहाड़ से पीठ टिका अपने पाँव पानी में बहा देता है और झील में दीये तैरने लगते हैं.

इसका पुरानापन हफ़्ते के वारों में सिमटा साल के महीनों की तरह बारह नंबरों तक इसका नयापन विस्तारित

रासायनिक त्रासदी का पोस्टर है ये शहर इसने अपने गहरे शोक में ब्रश भिगोए और रंग फैलाए इसने जीवन की निरंतरता को सबसे बड़ी कला माना

यह आधा आन्दोलनों और हड़तालों में बीतता हुआ और आधा मुआवज़ों के चक्कर में उलझा हुआ

यहाँ राजपथों और पगडंडियों के अपने-अपने अरण्य हैं

यह शहर लाल चट्टानों की असीम ख़दान है बेशकीमती खनिजों सी लाल चट्टानों की ख़ुदाई शुरू हो चुकी है इस शहर की जड़ों पर हमले की यह शुरूआत है

किसी भी शहर का दुर्भाग्य है महानगर होना यह अब उसी कगार पर है

पहाडियाँ सिमट रही हैं, धीरे-धीरे झीलें पानी में अपने विधवा होने प्रतिबिंब देख डरती हैं

यह शहर ऐसी चिन्ताओं वाली कविताएँ रोज लिख रहा है, पढ़ रहा है और फाड़ रहा है……..

*यह कविता पोयम्स इंडिया की पॉएट्री x प्लेसेस श्रंखला विशेष न्यूज़लेटर में प्रकाशित हुई थी

1 Comment


Guest
Oct 16, 2023

बहुत शुक्रिया कविता को जगह देने के लिए। इस कविता में समय समय पर संशोधन हुए हैं। इसका अंतिम प्रारूप जो बना है वह मेरे परिवर्धित संस्करण "हमारी उम्र का कपास" जो राधाकृष्ण प्रकाशन से कल ही छपकर आया है, उसमें है।

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