top of page

वैभव मिश्रा की कविता – अधिकारलिप्सु

आँखों ने जगह खाली देखी देखते ही मन ने कहा “भरे जाने योग्य “ और तपाक से बैठ गए जाकर हम । रेल की खाली सीट से लेकर खिड़की के खाली हिस्से तक को नहीं छोड़ा ! जहाँ खुद ना बैठ सके वहाँ सामान बैठा दिए और जमा लिए अधिकार । छोड़ना समर्पण मांगता है , समर्पण साहस साहस मनुष्यता मनुष्यता प्रेम और प्रेम समर्पण । विलक्षण प्रतिभाओं के धनी हमसे जब छोड़ने को कहा गया तो महात्म्य दर्शाने हेतु “मनुष्यता” चुन ली और खड़े हो गए दंभी बनकर कहते हुए कि यही “त्याग” है । जहाँ कहीं भी संवेदना दिखी तुरंत संवेदन शून्य हो गए । जहाँ मानवता ने हमसे हाथ मांगा हमने जेबों में डाल लिए हाथ । जहाँ लोगों ने आशा से देखा लगे आँख मीजने लाल होने तक । रेल से जीवन के सफ़र में जहाँ पूरा शरीर नहीं घुस पाया वहां अड़ा दिए पैर ! सबसे पहले जाकर बैठे खुली खिड़कियों के पास और लटके चेहरे को दिखा दिया टिका हुआ बिखेर ली मुस्कान । लोगों ने मुस्कान देखी और कहा “कितना सुखमय जीवन” । सीना तन गया जब तक गंतव्य ना आया । अधिकार अपने साथ जवाबदेही भी लाता है , जब हम कहते हैं वो जगह मेरी है वहां की सुगंध मेरी है वहाँ से लगाए गए नारे मेरे हैं वहाँ से उछाले गए फूल मेरे हैं वहाँ के लोग मेरे हैं तो जाहिर है वहाँ से उठती दुर्गंध भी हमारी होनी चाहिए , वहाँ से कसी गई फब्तियां भी हमारी होनी चाहिए , वहाँ से फेंके गए पत्थर भी हमारे होने चाहिए , और वहाँ से चलाई गई गोलियां भी हमारी होनी चाहिए । परंतु “अरे ऐसे कैसे भला” जवाबदेही पर यही उत्तर मिला । ढेरों तर्क सलीके से बिछाए गए प्रश्नों के ऊपर परत दर परत और सबसे ऊपर खड़े हो गए हम प्रश्नों का दम घुटने तक और कहलाए “अधिकारलिप्सु

वैभव मिश्रा

वैभव मिश्रा

#वभवमशर #hindipoetry #hypocrisy

27 views0 comments
bottom of page