अभिजीत सिंह
सिएस्टा
दूध के भगोने में
बिल्ली का ख़्वाब सुस्ता रहा है
अम्मा का गला नींद में
न तो चर्बी उठा पा रहा है.
न ही उसे बिठा पा रहा है
रेडियो पर विविध भारती की परछाई
लंबे तान में ढल कर रह गयी है
तेज़ ध्वनि में अधनंगे शब्दांश
नीरस समाज की तरह ही
कोरस से कोरस तक के घुम्मकड़ हैं
समाज का विचलित होना
दरवाज़े से बड़ी भगदड़ में
हाँफता हुआ चप्पल बिना उतारे
अभी-अभी आया है
और थके हुए पंखे के नीचे
धीमी आँच की तरह न तो ढंग से
जल ही रहा है न बुझ ही रहा है
घर का उदार स्वभाव
क्रोध को सुला देता है
घर के कोनों में अजीब-सा अँधेरा है
घर के कोनों में झगड़े और झाड़ू
दोनों ही दोपहर के आने पर
अपना-अपना धूल-धक्कड़ लिए
अपनी-अपनी ख़राश बुदबुदाते हुए
चार बजे की चाय तक उबासी के फ़र्श पर
हाथ-पैर फैलाकर पसर गए हैं
खिड़की पर बनते-बिगड़ते साये
सूरज के अंदर उमड़ रही नदियों के संकेत
किताबों के अधूरे रह जाने की व्यथा
फूलों से उड़ता हुआ आया है
मुरझाना उनका
माथे पर
यहाँ माथे पर
हथेली रक्खे हुए
सरदर्द का कहना मानता मन
जम्हाई लेता हुआ
सावन नाम जपता है
गर्मियों के नाम पर थूकता है
दूसरी तरफ़ कच्चे आम की छुरी
जीभ काटती है
कल्पना गाली खाती है
मुँह में सूरज की एक नदी
जलप्रवाह लाती है
जिसके चलते गला सूखा रह जाता है
साँसें बासी हो जाती हैं
खाना बनने की योजना में
प्याज़ और लहसन का स्वाद हाथ को
काम में लगाये रखता है
तो कलाई ब्लेड से
गर्दन दुप्पटे से बच जाती है
नानी माँ की नाक से गाने की आदत
अब मेरे मुँह तक आ चुकी है
यानी ये कि मैं सब्ज़ियों से बड़बड़ाया करती हूँ
अम्मा सो रही हैं
पिता सर झुका कर यूँ बैठे हैं
कि यह कह पाना कठिन है कि पिता बैठे हैं
या अम्मा का जागना
लहसन के झाग से मैं छींक पड़ती हूँ
प्याज़ कपड़े उतारे हँसती है
तो मैं भी झेंपकर किसी प्रियसी जैसी
भरी हुई बोझल आँखों से
हँस पड़ती हूँ
रो पड़ती हूँ
इतने में किसी का फ़ोन बज उठता है
पिता अचानक ही
आत्मा के बिना ही
घर के बाहर निकल पड़ते हैं
चप्पल आरामकुर्सी के नीचे
पूजाघर में फलों जैसी रक्खी रह जाती हैं
इतने में अम्मा कहती हैं
'अरे क्या हुआ, कौन मर गया'
इतने में
बिल्ली का ख़्वाब टूटता हुआ देखती हूँ
पाती हूँ स्वयं को घूरते हुए
दूध के भगोने में
गर्मी बहुत है
दूध की नींद उड़ चुकी है
आज खाने की थाली में दही भी होगा