प्रतिभा गुप्ता
दीदी! यहाँ क्यों छूता है चाचा
मेज पर कोहनी टिकाये
अन्धेरे में बैठी हूँ
देख रही हूँ
उनके पदचिह्न वहीं पड़े हैं
जस के तस
मानों मेरे द्वार के लिफाफे पर
स्टाम्प लगा हो जैसे पनछुटा सा
ख़ैर मैं राह देख रही हूँ
दस बरस की मुन्नी का
वह बड़े ही कायदे से कल
जला गई थी मेरी लालटेन
वह फिर आई लेकिन ज़रा देर से
आते ही मेरा हाथ अपनी छाती पर लगाकर
बोली-
दीदी! यहाँ क्यों छूता है चाचा
सुना मैंने भी और
दरवाज़े पर वापस आकर लटकी
कविताओं ने भी
मुन्नी ने लालटेन जलाया
और लौट गई
द्वार के लिफाफे पर
पाँवों का गाढ़ा स्टाम्प लगाकर ⠀⠀
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