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Handpicked Hindi Poems from June 2021

एक बार पलटना तो चाहता हूँअभिजीत सिंह

पीछे देखने के संदर्भ में •

एक बार पलटना तो चाहता हूँ

कि सूरज जब गिरे मेरी ही तरह वर्तमान से वर्तमान में

सम्मान में जब शाम के आकाश से बीत चुके दिन के फूल गिर पड़ें

और रिस रहा हो मोहल्ले की एकलौती खुली खिड़की से जब प्रेम

खुली किताब का खुली आँखों में

और जेब में खनखनाते खुले रुपयों का उत्साह कुल्फ़ी वाले की तरफ़ देखने के बाद

यानी कि जब सब खुल रहा हो तो बाहें भी खोलना तो चाहता हूँ

कि जब सब खुल के बिखरे तो पकड़ने की इच्छा से न सही

कुछ देख पाऊँ दुख का गवाह होने के नाते से

रोकना तो नहीं चाहता हूँ बारिश को छाते से

मगर छाते की एहमियत बनी रहे सो भीग जाने के पश्चात पीछे मुड़कर कहना तो चाहता हूँ – ‘अरे छाता भूल गया’

भागती गाड़ी में बैठे ख़ुद को जब भी देखूँ स्वप्न में

तो देखूँ कि पीछे जा रहे पेड़ों को बेचैनी से घूरते हुए देखता हूँ

दरअसल पेड़ों को देखना बहाना होता है क्योंकि पेड़ तो वहीं होते हैं हाँ मगर यात्रा में झूठ को भी अपनाना होता है

फिर चाहे कितनी ही जल्दी क्यों न गुज़रता रहे सब

कि जैसे कहीं से भी निकलते वक़्त जितने होते हों पीठ के अनुभव उन सभी से भावुक हो हो के लिपटना तो चाहता हूँ

कलिंग गहरे शोक में है पीछे तो हो सकता है अशोक ने भी सोचा हो

‘एक बार पलटना तो चाहता हूँ’

धुँधला आदमीदेवांश दीक्षित

थरथराती देह और दहकती संवेदना का मिश्रण, उसे किस चक्रवात में मथ रहा है, यह पीड़ित से न पूछना,

खुद की असहायता जब खुद को ही जकड़ती है,

तब आत्मा ख़ाली बाल्टी में पड़े लोटे सी बजती है,

पीड़ा है या हीर, राँझे को छोड़ने का नाम ही नही लेती,

मेरा विलाप, मेरा क्रोध, उतना ही निरर्थक है जितना, कविता से काट छाँट के बाद निकाल फेंकी गयी उपमा या बिम्ब,

एक कठफोड़वा हर रोज़ देह कोंचता है मेरी, सूखी आँखों में उसे ठूंठ नज़र आता है,

यहाँ हर दार्शनिक द्वैत अद्वैत पर, खोपड़ी खपाता है,

उसे बताओ इस देश में हमें, पेट और रोटी का, अद्वैतवाद सालता है,

नही ! मैं मरा नही हूँ, नही ! मैं जिया भी नही, लोकतंत्र के कैनवास पर बना, मैं एक धुँधला आदमी हूँ,

‘दृश्य’ और ‘अदृश्य’ के मध्य, अस्तित्व की जद्दोजहद करता,

जिसे अधूरा छोड़, कला के मापदंड में कर फेर बदल, एक चित्रकार देता है ‘पेंटिंग’ की उपाधि,

( चित्रकार छली है या इस देश में कला स्वयं एक सुसज्जित छल है ! )

पेंटिंग का शीर्षक याद नही आ रहा,

दिन…अच्छे ? अच्छे…दि…न ?

स्मृतियाँ एक दोहराव हैं मनीष कुमार यादव

उत्कंठाओं के दिन नियत थे प्रेम के नहीं थे

चेष्टाओं की परिमिति नियत थी इच्छाओं की नहीं थी

परिभाषाएं संकुचन हैं जो न कभी प्रेम बाँध पायीं न देह

स्मृतियाँ एक दोहराव हैं, जो बीत गए की पुनरावृति का दम्भ तो भरती हैं लेकिन अपनी सार्थकता में अपूर्ण शब्दभेदी बाण की तरह अन्तस में चुभती रहती हैं

विरह बिम्बों से भरा दर्पण है जो एक और बिम्ब के उर्द्धवाकर समष्टि का भार सहन करने में असहाय हर एक विलग क्षण में टूटता रहता है

दर्पण का टूटना प्रतीक्षाओं के उत्तरार्ध की निराशा है

उससे छिटककर गिरा एक बिम्ब कृष्ण के पाँव में धँसा हुआ बहेलिए का तीर है

प्रेम मनुष्य के लिए सबकुछ बचा लेता है जो प्रतीक्षाओं को नहीं प्राप्त होता

सब जाते हैं उद्विग्नता से प्रेम की तरफ और लौटते हैं अपनी स्मृतियों की खोह में बरामद होते हुए

एकान्त के समभारिक क्षणों में कहीं कोई स्थायित्व नहीं है

वेदनाएं अभ्यस्त एकालाप हैं और एकान्त- अनीश्वरवाद की पीड़ा!

एक नया धर्मनिरंजन कुमार

पहली तिजोरी किसी लोहार ने नहीं एक प्रेमी ने बनाई थी पुरानी यादों को बंद करके दरिया में फेंकना था उसे

पहली नाव किसी मछुआरे ने नहीं एक नव- ब्याहता लड़की ने बनाई थी नदी के दूसरी तरफ था उसका मायका

मुझे लगता है मनुष्य ने पहली यात्रा भोजन की खोज में नहीं अपने किसी गुम गए साथी की तलाश में की थी

हां, पहली मूर्ति किसी देवता की नहीं बनी होगी एक उदास बच्चे ने गीली मिट्टी से अपनी मां का चेहरा बनाया होगा

पृथ्वी पर बसे सबसे पहले शहर का नाम किसी योद्धा या सम्राट के नाम पर नहीं एक नदी के नाम पर रखा गया होगा और उस नदी का नाम उस स्त्री के नाम पर जो रोज़ उसमे अपने केश धोती थी

शायद वेद,पुराण, उपनिषद या कोई और ग्रंथ लिखने वालों ने भी सबसे पहले लिखा होगा — एक प्रेम पत्र

मुझे पूरा यकीन है किसी पैग़म्बर की बात पर सबसे पहले यकीन उस दौर के नाकाम आशिक़ करते होंगे

तुमने कई और लोगों को तुमसे प्रेम करने दिया होता तो शायद तुम्हारे नाम से शुरू हो सकता था एक नया धर्म

करुणा जीतने वाली है मेहनाज़

धूप फिर गुनगुनी हो चली है दूर तलक फैले पहाड़ों की खुशबू सड़ती, सीलन भरी दरारों से अंदर आ रही है

फटती धरती के बीच से उग आई है दूब और ढक लिया है अपने हरेपन से धूसर पड़ी भूमि को

कौंधती बिजली को देख बच्चे इस बार मां की गोदी में नहीं दुबके ; बल्कि किवाड़ की आड़ से कनखी मार, उसे चुनौती दे रहे हैं

सौंधी मिट्टी के इत्र से जीवंत हो रहा है मुरझाया, अधमृत अरण्य जीवन

किरणों के कलरव से इठला रही गुमसुम बैठी पारदर्शी झील

निशा लगाकर मांगटीका चंद्रमा का चीर रही है गहन अंधेरे को

तारे झुमके में लगे नग की तरह बढ़ा रहे शोभा आकाश की

प्रकृति फिर कर रही है श्रृंगार मोह का फिर क्रूरता पर करुणा जीतने वाली है ।

कविताएं अनुभूतियों की देह होती हैद्वितीया

अस्तित्व की खोज में, स्वयं में उलझ कर रह जाने की नहीं,

अतीत के भंवर में निरंतर डूबते चले जाने की नहीं,

अपने अधूरेपन को पन्नों में उतार ज़िंदगी से थकी हारी भावनाओं की आंखें मूंद अपने अंदर घिघियाते शोर को छिपाने की नहीं

इन सबसे इतर कविता एक अबोध की कोशिश है— बेरहम दुनिया से प्रेम को बचाए रखने की, प्रेम को दुनिया में बचा लेने की।

उदासियो के थपेड़े खाती एक देह में, खूबसूरत मन से प्रेम करने, मुस्कुरा लेने का आत्मबल प्रदान करने की।

तमाम हताशाओं के बाद भी, अपने अंदर प्रेम का सृजन कर पाने की एक उम्मीद जो वह बचा लेता है, जैसे, आंखें बचपन बचा लेती हैं।

अंतर्विरोधों के बावजूद, लोगों के मध्य स्नेह बनाए रखने की ज़िद जैसे पेड़ उगता है,बढ़ता है,फलता है और काट दिए जाने पर फिर से उगता है।

कविता है, आंखों के मध्य आंखें जो देखना जानती है कानों के मध्य कान जो सुनते हैं सही मायने में और हाथों में हाथ जो छूना जानते हैं।

कविताएं अनुभूतियों की देह होती है और अनुभूतियां कविताओं की आत्माएं।

वह कविता ही है,

जो समेट लेती है अपने अंदर सारी पीड़ाएं,सारे गिले शिकवे सारे ज़ख्म, सारी रंजिशें चीखती चिल्लाती शोर मचाती चुप्पियां, सबकी कमजोरियां मन में उपजी चंचलता, उद्दिग्नता साथ ही जाने कितनी ही ऐसी चोट खायी मानवीय भावनाओं को;

और बचा लेती है मानव को… स्वयं के अंतहीन विचारों का शिकार होने से।

विकलांगों की मूर्तियाँ मनीष कुमार

पड़ोस के घर में बच्चा पैदा हुआ है घर से चीखने चिल्लाने की आवाज़ आती है मैं सोचता हूँ लड़की हुयी होगी पता करने पर मालूम चलता है लड़का हुआ है मैं हैरान परेशान हूँ लड़के के जन्म पर क्रंदन क्यूँ पता करने पर मालूम चलता है लड़का विकलांग पैदा हुआ है बच्चे के माता-पिता लेटे हैं कुछ मूर्तियों के आगे कह रहे हैं मूर्तियों से हम तो तुम्हें पूजते थे हमारे साथ ही ऐसा क्यूँ किया

मैं पहले लड़के को देखता हूँ फिर देखता हूँ मूर्तियों को मूर्तियों में एक के चेहरे पर सूँड़ लगी है दूसरे की तीन आँखें हैं तीसरे के चार मुँह हैं

मैं जा रहा हूँ दुनिया भर की मिट्टी ख़रीदने और बनाऊँगा सभी विकलांगों की मूर्तियाँ

जीवन में इतना आराम चाहता हूँ जितना आराम करते हैं किवाड़ के पीछे खूंटी पर टंगे कपड़े

इतना एकांत चाहता हूँ जितने एकांत में रहती हैं रैक में रखी पढ़ी हुई किताबें

मैं चाहता हूँ इतना शीतल होना जितना शीतल है गंगा का बहता हुआ पानी

चालाकी इतनी चाहता हूँ जितनी चालाकी से रोता है खिलौना न मिलने पर एक छोटा बच्चा

इतना सरल होना चाहता हूँ जितना सरल है याद करना दो का पहाड़ा

निःस्वार्थ होना चाहता हूँ इतना जितना निःस्वार्थ होता है किसी से करना एक तरफा प्रेम

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