जीवन एक अभ्यास था — अभिनव श्रीवास्तव की कविताएँ
- poemsindia
- 2 days ago
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इच्छा
मैं चाहता हूँ आज
सबसे पहले भंग हो
मेरा संभ्रान्त होना
मुझे छू जाए
कोई मैली-कुचैली देह
कोई मुझे भी दे जाए धक्का
और मैं भी पीड़ा में छटपटाता मिलूँ
शोर भरी सड़कों पर
एकदम निढाल और अकेला
मैं चाहता हूँ आज
मेरा कोई भी
आवेदन स्वीकार न हो
सूरज के निकलने से
सूरज के अस्त होने तक
मैं भी खड़ा मिलूँ लंबी क़तारों में
पसीने से लथपथ
मैं जब लौटूँ भी अपने घर
तो कोई न हो मुझे पूछने वाला
बस एक दिया बालूँ
और अपनी थकान को
मिट्टी के चूल्हे पर चढ़ाऊँ
पकने के लिए
और चुपचाप सो जाऊँ
मैं चाहता हूँ
हर दिन इसी तरह
भंग हो मेरा संभ्रान्त होना
और मैं इस पर कभी कोई
कविता न लिखूँ !
एक प्रश्न
प्रेम तो किया था मैंने भी
बस प्रतिबद्धताएं अलग थीं
साथ तो चला था मैं भी
बस दायित्व अलग थे
क्या जरूरी था
पहले से तय रास्तों पर चलना
और पहुँचना वहाँ
जहाँ अक्सर सब पहुँचते हैं?
विवशता
जबकि वापसी की
सब संभावनाएं खुली थीं
मैं वापस नहीं लौटा
जबकि बहुत कुछ था मेरे
पास कहने को
मैं चुप रहा
जबकि याद रखने को था
बहुत कुछ
मैंने सब कुछ विस्मृत
हो जाने दिया
जबकि रोक सकता था मैं तुम्हें
क्षितिज के उस पार जाने से
मैंने तुम्हें
जाने दिया!
जीवन एक अभ्यास था
लौटने से ज्यादा रुकने का
कहने से ज्यादा चुप रहने का
याद रखने से ज्यादा भूल जाने का
और पाने से ज्यादा
तुम्हें खो देने का
एक दिन
एक दिन
मैं सहसा निकल पड़ूंगा
घर से और
दुनिया की हर अस्वीकृत
चीज को लगा लूँगा गले
पढ़ूँगा ख़ारिज
कर दिए गए शब्द
सुनूँगा तिरस्कृत संगीत
यात्राएँ करूँगा
निषिद्ध क्षेत्रों की
छूकर लौटूँगा
वीरान हो चुकी
इमारतों की ठंडी ईंटें
उस घास को सहलाऊँगा
जिसमें अब नहीं बचा
नुकीलापन
एक दिन मैं
सहसा निकल पड़ूँगा
और देर तक निहारूँगा
उस सावंली देह वाली
लड़की की आँखें
जिसमें बरसों से सुरक्षित हैं
कई अस्वीकृत दुःख
एक दिन मैं
निकलूँगा सहसा बाहर
और ले आऊँगा
उस दुःख को
अपनी अंजुरी में भर
ताकि पसीजता रहूँ
स्वीकृतियों के अपने संसार में
हर दिन
थोड़ा-थोड़ा !
दुविधा
शब्द जिनके नहीं निकलते अर्थ
रास्ते जो कहीं नहीं जाते
हाथ जो हमेशा छूट जाते हैं
प्याले जो अक्सर टूट जाते हैं
सब के सब अंततः आते हैं
मेरे हिस्से में
मैं इसे उपलब्धि कहूँ
या अपनी विडंबना?
अंतिम इच्छा
अंततः एक दिन आएगा
जब समय अपने बढ़े हुए
नाख़ूनों के साथ आएगा मेरी ओर
हवा आएगी ज्यादा तैयारी के साथ
और डगमगाने लगेंगे
बरसों से जमे मेरे पाँव
स्वप्नों की आभा
कब तक करेगी
मेरी सुरक्षा
एक क्रूर विजयी
मुस्कान के साथ लील लेना चाहेगा
आसमान सब कुछ!
तुम्हें आख़िरी बार देख लेने
की उम्मीद भी तब कहाँ होगी
जो थाम ले मुझे
सब ओर से घिरा हुआ मैं
अंततः एक दिन पड़ जाऊँगा
निपट अकेला
बस अंत में बच जाएगी
एक धीमी-सी कराह
एक धीमी-सी आर्त पुकार
इसी आर्त पुकार के सिरे पकड़कर
आते रहना मुझसे मिलने
बारंबार मेरी दोस्त
मेरे जाने के बाद!
असफलता
बार-बार छला गया
जिन शब्दों को
उन्हें नहीं सिखा पाया
प्रतिशोध लेना
जैसे प्रेम और करुणा की
कोई नदी बहती थी
शब्दों की तह में
जैसे दर्ज़ थी उनमें
सभी को हर हाल में
क्षमा कर देने की सीख
जब भी कभी पाया शब्दों को
अभिव्यक्तियों के संसार में अकेला
और उतर आया आँखों में गुस्सा
शब्द सामने आकर खड़े हो गये
मुस्कुराते हुए, याद दिलाते हुए
कि इस दुनिया में जब हर क्षण हो रहा है
कोई न कोई एकाकी
जब हर क्षण संसार में
बने रहने के लिए
थोपी जा रही हैं
निष्ठुर शर्तें
तब उनका एकाकी होना
उस नियम के अनुरूप है जिनसे चलता है
अभिव्यक्तियों का संसार
मैं हर बार परास्त होता हूँ
इस दलील के सामने
इस मुस्कान के सामने
और देखता रहता हूँ
शब्दों का एकाकी
और एकाकी होते जाना
लेकिन फिर भी
मैं उन्हें नहीं सिखा पाता
प्रतिशोध लेना!
अभिनव श्रीवास्तव की दिलचस्पी आधुनिक खेलों के नृशास्त्र में है। फ़िलहाल वे शिव नाडर विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा के समाजशास्त्र विभाग में उत्तर औपनिवेशिक अस्मिताओं के निर्माण में क्रिकेट के खेल की भूमिका पर अपना शोध कर रहे हैं। इससे पूर्व वे कुछ समय तक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, नई दिल्ली में सलाहकार रहे। द वायर, द क्विंट, यूथ की आवाज़ जैसी अंग्रेजी वेबसाइटों पर खेल, समाज और संस्कृति के अंतर्संबंधों पर नियमित लेखन करते हैं। हिंदी वेबसाइटों पर पूर्व में भी कविताएं प्रकाशित हुई हैं।
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