मेरे संसार के दायरों तक जल आ पहुँचा है : अजय नेगी की कविताएँ
- poemsindia
- Aug 12
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1. अंततः
सारे कामकाज छोड़कर
मौन को बदलकर चीख़ में
मैंने शुरू कर दी है जंग
बिना किसी आग़ाज़ और अंत के
लड़ रहा हूँ
मुझे अपनी जीत पर यक़ीन है—
इतना यक़ीन
कि कुछ देर लड़ते हुए
वह आ गई मेरी मुट्ठी में
और इस तरह
उसके समूचे अस्तित्व को
मसल दिया मैंने उँगलियों पर
ख़ून की एक बूँद बनकर रह गई मक्खी।
अनुपस्थिति
आज उस रंडी की लाश मिली है
जिसकी कल हत्या कर दी गई थी
फ़र्श पर जमे बलग़म के दाग़ों पर
ख़ून के छींटे बिखरे हुए हैं
लाश अब यहाँ से जा चुकी है
मगर सब इस बात से अनजान हैं
कि इसी बदनुमा कमरे में
भटकता रहेगा उस रंडी का भूत
यहाँ से वहाँ
अपने ग्राहकों के इंतिज़ार में।
जीवन-जन्म
उस कंदरा से निकलकर
वह केवल रौशनियाँ देखता रहा
जीवन ने उसे भविष्य के भ्रम दिए
मृत्यु ने दी अतीत की अमरता।
उकताहट
तुमने मेरे आँसू टपकते देखे
तुमने मेरी चीख़ों को बर्दाश्त किया
तुमने रात भर मेरी सिसकियाँ सुनीं
तुमने मेरी बातों को ख़ुद तक सीमित रखा
ऐ मुर्दा दीवारो,
तुमने वह सब किया
जिसकी उम्मीद मुझे मनुष्य से थी!
यात्री
खारे पानी की सतह पर सरकते हुए मैं
मीठे पानी की कल्पना करता हूँ
प्यास से मरता हूँ!!!
मुक्ति
पागलख़ाने की काली दीवारों के उस ओर से
वह राल टपकाता मुझे देख रहा है
सड़क के बाईं तरफ़ नाली से सटी
पागलख़ाने की काली दीवारों के इस ओर से
मैं भी उसे देख रहा हूँ
यह भला कौन जानता होगा
कि हम दोनों एक ही समय में देख रहे हैं
अपना-अपना भविष्य
अपना-अपना अतीत।
नींद
सो जाओ
आराम से जाओ
अब भौंकना बंद भी करो
सुबह हो गई है
और तुम अभी तक जाग रहे हो
मेरे प्यारो, यह सब किसलिए?
क्या तुम्हें नहीं मालूम
कि तुम कितना दर-बदर फिरे हो
कहाँ-कहाँ ज़लील हुए हो!
लानत
ट्रेन सरपट भागती चली गई
वह कटकर चार हो गया
उस वक़्त वहाँ कोई उसके बहुत क़रीब था
मैंने देखा : उसके सीने पर लातें बरस रही थीं
कोई उसके चेहरे पर थूके जा रहा था
शायद यह उसकी आत्मा होगी।
गुनहगार
मेरी स्मृतियों में गुनाह हैं
मेरी आँखों के आगे मृत्यु के दृश्य
मेरे गले पर उँगलियों के निशान हैं
मेरे अंदर दबी हुई हैं चीख़ें
मेरे हाथों कहीं मारा न जाऊँ मैं!
समय
मेरे संसार के दायरों तक जल आ पहुँचा है
सबकुछ अब धुँधला जाने की कगार पर है
इन्हीं क्षणों में मुझे भी कुछ करना है
मैं मनुष्य हूँ सो आँखें बंद कर रहा हूँ।
कवि के बारे में:
8 नवंबर 1998 को जन्मे अजय नेगी का मूल नाम अजय सिंह गोसाई है। उन्होंने मनोविज्ञान से स्नातक करने के बाद जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पत्रकारिता की पढ़ाई की। इस समय इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय से एम.ए कर रहे हैं। अपनी शेरो-शायरी में गहरी दिलचस्पी के सबब उन्होंने उर्दू के क्लासिक्ल शुअरा में से एक रियाज़ ख़ैराबादी की शायरी का लिप्यंतरण किया जो किताबी शक्ल में ‘शब-ए-ग़म की सहर नहीं होती’शीर्षक से प्रकाशित हुई। सआदत हसन मंटो के पत्रों की किताब ‘आपका सआदत हसन मंटो’ [उर्दू] का ‘आपका मंटो’ शीर्षक से लिप्यंतरण कर चुके हैं। हाल ही में उन्होंने तस्नीफ़ हैदर के उर्दू उपन्यास ‘नया नगर’ का हिंदी अनुवाद किया है। इसी सिलसिले में अगली किताब ‘देहली की आख़िरी शम्अ’ का लिप्यंतरण भी शामिल है। फ़िलहाल मंजुल पब्लिशिंग हाउस के संपादकीय विभाग [हिन्दी] में कार्यरत हैं। इन सब कामों के बीच कविताएँ भी रच रहे हैं।
बढ़िया कविताएं अजय भाई