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कवि की आत्महत्या: देवांश एकांत की कविताएँ

  • poemsindia
  • Jun 7
  • 6 min read
कवि की आत्महत्या - देवांश एकांत की कविताएँ

सनसनीख़ेज़


समय है जब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ

भूल गया है मर्यादा के बीजगणित


'नौटंकी' एक शब्द

प्राइम टाइम की आदतों में शुमार है


अड्रेनलिन की बढ़ती माँग का है समय

सिर्फ़ आंदोलन, भुखमरी, दंगा-फ़साद, महामारी

चोरी, बलात्कार कह देने भर से काम नहीं चलेगा

संचार क्रांति के सामने पसरी भीड़

दुर्घटना को मनोरंजन की तरह देखना चाहती है


पीड़ित की भंगिमा के पीछे

भाव विभोर कर देने वाला म्यूज़िक चाहिए

हमलों और सीमा विवाद की घटनाओं पर

बेतुकी तुकबंदी चाहिए

झोपड़ पट्टी में पड़े शरणार्थी का

मसालेदार साक्षात्कार और

पर्यावरण के नाम पर

नाचता-कूदता पृथ्वी का कार्टून चाहिए


वैचारिक विमर्श और डिबेट्स के नाम पर

अपशब्द बोलते, क्षुद्र आरोप लगाते

मदारी के भालू चाहिए


अधिकारों के प्रश्न की तलाश में

भटकते हुजूम का

फ्रेम्स प्रति सेकंड अनुसार विलाप चाहिए


यह समय है

जब हमें एक दर्शक के तौर पर आदत है

लाशों में स्वाद और आँसुओं में लय ढूँढने की

जबकि ऐसे भी हैं दुनिया में

जिन्हें लाशों में लय

और आँसुओं का स्वाद भाता है


ख़बरें इन दिनों

दुःख भांजने की मशीन हैं

जिसमें गन्ने की तरह पेरी जाती शोषितों की कहानी

चुक जाता है जब रस

बचता है अस्तित्व का डंठल

फेंक दिया जाता उसे गुमनाम रस्तों पर


लगे हैं प्रसारण केंद्र बेजोड़ प्रतिस्पर्धा में

युद्ध की घृणास्पद परिस्थितियाँ

विचलित से अधिक

उत्साहित करती हैं उन्हें

उनके कंठ में न रक्तपात का काँटा धँसता है

न मृतकों के प्रति कोई भाव जगता है

उन्हें चिंता है तो सिर्फ़

'सबसे तेज-सबसे पहले' होने की


वो उछाल देते हैं निर्दोष की आबरू

ताश के पत्तों की तरह

मूर्खों की क्रूरता

जपते हैं संस्कार की तरह


टी आर पी और संख्या का खेल नैतिकता से आगे है

और हम दर्शक जो ले रहे चाव इन जुमलों पर

दरअसल वे ही इनके प्यादे हैं

इनके फैलाए भ्रम का ग्रास हैं

जो किसी रोज़

नगर की तंग गलियों से गुज़रते हुए

बनते हैं एक और सनसनीखेज़।



नाचती दुनिया


नाचती दुनिया थी एक

रील की आब ओ हवा में धराशायी हुज़ूम

नेट रिचार्ज के कूपनों का सतही प्रयोग बन सिमटती

तर्क-तकलीफ़ से कोसों दूर

नाचती हुई दुनिया थी एक


वहीं एक दुनिया थी

जो भूल चुकी थी गिनती

मृत शिशुओं की

टूटे-जले मकानों की

चित्र अनगिनत बिलखने के


आबरू के चिथड़े बादलों की जगह ले रहे थे

युद्ध अपने चरम को लांघ 'आदत' बन चुका था

साँस में ऑक्सीजन संग विध्वंस की स्वीकार्यता

अंदर तक घुस चुकी थी


दुनिया थी एक

बाज़ार के उतार चढ़ाव में गर्म होती

जहाँ खिलौने-सी बिकती आरामपसंदी

त्वचा का गोरापन, अंगों का सुडौलपन, मांसपेशियों का पैनापन

वैचारिक ग़ुलामी से जन्मी कामनाओं को ईंधन देता


वहीं एक दुनिया थी

भूख के स्वप्न में

रेगिस्तानों में फँसी

जिसे मालूम नहीं था अपना गला कैसे घोंटा जाए

बस विस्थापनों की दिनचर्याओं में

घिसल रही थी


एक दुनिया थी लिजलिजी

दृष्टिबोध से कोसों दूर लिथड़ती

चौक चौराहों में सिमटती कुओं के मेढक सी

जहाँ कवियों को नहीं थी फ़ुरसत

गुटबाज़ी की कलफ़ से निकल कुछ करने की

विचारकों को विचार आता था तो बस

एक दूसरे पर (शाब्दिक) थूकना


एक दुनिया थी जिसकी दहलीज़ पर

आत्मा मुँह छुपाए बैठी थी

शरीर को जितना ढाप सकती थी ढापे थी

पर दुःस्वप्नों की आँच शीशा बन झाँकती थी

चाल चलन पर गालियों की लंबी शृंखला

गूँज रही थी जब महानगरों की सड़कों पर

तब समानांतर में समाज इज़्ज़त बचाने के लिए

थोड़ा-सा कैंडल मार्च निकाल लेता

अस्मिता से खिलवाड़ और उसके बाद की प्रतिक्रिया

एक अनंत सिलसिला था?


एक दुनिया थी

अल्ट्रा प्रो मैक्स रोशनी में चौंधियाती

रिश्तों को ब्लैक होल बन लीलती

धोखों को मूल अधिकारों-सा सामान्य करती

अधिकारों को मूल अपराधों से अपंग करती

जिसकी दिनचर्या में

ज़बान से हर दूसरे मिनट माँ बहनों के अंग-भंग कर देना

और घर जाकर माँ बहनों के बीच बैठ

आस-पास घटी घटनाओं पर आँखें फाड़ना

अव्वल स्तर का प्राथमिक ड्रामा था


एक दुनिया थी मेरी खोपड़ी में घूमती हुई

हज़ारों हाथ नसों पर फैलते हुए

एक-एक के सिक्के सौ-सौ बार माँगते हुए

फटे से लिबास में बढ़ा-सा पेट लादे पृथ्वी-सी लड़कियाँ

मुस्कान पर गंदी बीड़ी का धुआँ फैलाए

जिनके सत्य को तमाम रोज़ मार डालता

बहसों का घंटों चलता (अधिक-तर) फूहड़पन


दुनिया थी कॉफ़ी, लिवरेज, ग्रोथ और इकोनॉमी की साजसज्जा में

पाताल तक धँसी

क्लाइमेट चेंज कहते-कहते

वातावरण की नींव में टाइम बम लगाती हुई


दुनिया थी, अपनी दुनिया में व्यस्त

इसमें कितनी दुनिया थीं यह दृष्टिकोण से बाहर का कोण था

दुनिया में दुनिया को बचाना असंभव था

आदमी को ऐ-आई से बदल जाना था और

ऐ-आई को आदमी का हल होकर आदमी को घटाना था


यह दुनिया थी जिसके हिस्से में

बस एक यही मामूली-गैरमामूली पक्ष था कि

तकनीक के जादूगरों के आकाश गंगा में

बार-बार हिनहिनाने के बाद भी

ले देकर वही एक दुनिया थी।



मुझे देखो


मैं सभाओं से दूर हूँ

और पुरस्कारों की दहलीज़ के बाहर खड़ा हूँ


आदमी की तेज़ी मैं पकड़ नहीं पाता

जैसे बारातों की शहनाई पर शराबी का नृत्य हो!

या कोई अश्लील गाना

जिसे सुदबुध में सुनते हुए

आ जाए उबकाई

पर बाजे पर बजती उस धुन पर

हमारा डार्विन के आदिमानवों-सा कूदना

चकित करने लगा है मुझे


मैं परिपक्वता से खदेड़ा जा रहा हूँ

और समझाने से बाहर हो रहा हूँ


मेरी बातें प्रेमिकाओं को नींद दे रही हैं

नींद चुरा नहीं रहीं

मसलन यह मेरे संभल जाने का वक़्त है!

फ़ैज़ की नज़्म पढ़

प्रेम के संसार में लौटना चाह रहा हूँ

पर क्या कीजे कि वक़्त ऐसा है

सड़क पर सोया आदमी का जिस्म हो

या एक जवान यार की ख़ुदख़ुशी

खुश रहना हर वक़्त संभव नही

मुनीर का उकताया शेर मुझे गले-सा लगता पड़ रहा है


मुझे देखो ग़ौर से

आत्मचिंतित और बहुत सारा पानी जमा है मेरे पास

मुझे देखो जैसे देखते हो नक़्शे को

जैसे देखते हो पुराने बक्से को

मैं देना चाहता हूँ आसपास अपनी साँस साँस

उखड़ रहा हूँ अपनी ज़मीन से

रिश्तों से बाहर हूँ

स्पर्शों से हाज़िर हूँ

पेड़ बनकर खड़ा नहीं अड़ा हूँ

उधार माँगी पढ़ी समझी वैचारिक जड़ों पर लड़ा हूँ!

ठूंठ होने से पहले मेरे पास आते रहो सब

इससे पहले मैं कविता से ख़ारिज हो जाऊँ

कम से कम देवताले का पतझड़ का पेड़ होना चाहता हूँ।



यह दुनिया ईश्वर के दान से मरेगी


कहीं उमर के पड़ावों से पस्त चेहरा

बरबस रो पड़ता है


कभी उजाड़ आबरू का शोक

शोक की कब्र खुदने के बाद

प्रारंभ होता है


अजीब है समय

उससे अजीब लोग


चालाकियाँ इतनी सामान्य

कि क्रूरता का अभिनय आवश्यकता है


संवादों में भारीपन और रूखापन

आपको महफ़िल में बड़प्पन देता है


नपी-तुली बात इन दिनों

हंसी उड़ाने का स्रोत है


डिग्रियों की दीमक पर बैठे

प्रोफ़ेसर, इंजीनियर, डॉक्टर इत्यादि

भीतर के चोर से भागते हुए

बात-बात पर

उगल देते हैं मासिक कमाई की पर्चियाँ

मसलन सबको पता है

नैतिकता कितने नोटों पर ठंडी पड़ती है


सोच का बोझा

देह से उतारने का प्रयास करता हूँ

दूर घटी हिंसा की आवाज़

नींद की टाँगे तोड़ डालती है


ना आँखों में दृश्य हैं वापसी के

ना पृथ्वी की क्षमता है समय घुमाने की

दुनिया नाटकों की चाह में मरना चाह रही है

ईश्वर दुनिया को किरदार दे देकर हँस रहा है

क्योंकि ईश्वर से हमने सब कुछ माँगा है

अंततः यह दुनिया

ईश्वर के दान से मरेगी।



कवि की आत्महत्या


अभिनेता अभिनय करते-करते

मृत्यु का मंचन करने लगता है

आप उन्मत्त होते हैं अभिनय देख

पीटना चाहते हैं तालियाँ

मगर इस बार वह नहीं उठता

क्योंकि जीवन के रंगमंच में

एक ही 'कट-इट' होता है


कोई हँसते-हँसाते

शहर के पुल से छलाँग लगा देता है

और तब पिता के साथ

नवका विहार में आया लड़का जान पाता है

पानी की सतह पर मछलियाँ ही नहीं

आदमी भी तैरता है


हर वज़न को अपनी हद में रखने वाला वैज्ञानिक

आत्मा के ख़ालीपन से दबकर मर जाता है


कुछ घरों में उजाला सूरज से नहीं

कई दिनों बाद गरम रोटी की चमक से होता है

सुबह रात के जाने से नहीं

मजूर बाप के आधी रात लौटने से होती है

माफ़ कीजिए यह दरअसल घर नहीं हैं

संग्रहालयों में रखे चित्र की व्याख्या है

आपने यह चित्र जीवंत देखा क्या?


मेरी आँखों का कालापन

शायद राख है काफ़्का के उन पत्रों की

जो उसने मिलेना को भेजने से पहले

अपनी हीनता के बोध में जला डाले होंगे


रात्रि के झींगुर नाद के मध्य

जब तुम कर रहे होगे

अपनी कविताओं में काँट-छाँट

तुम अचानक पाओगे कि

मुक्ति का साधक मुक्तिबोध

सबसे अधिक बंधा था बेड़ियों में

ब्रह्मराक्षस आज भी करता है

नरक में उसका पीछा


देह में रक्त ही नहीं

प्रतीक्षा भी दौड़ती है

रक्तचाप से अधिक

प्रतीक्षा झँझोड़ती है

यह मैंने ड्योढ़ी पर बैठे उस दरवेश से जाना

बह गयी जिसकी प्रेमिका गाँव की बाढ़ में

जल्द लौटने का वादा कर


भीतर की एक-एक नस

थरथरा उठती है यह सोचकर कि

एक दिन नहीं होगी माँ, नहीं होंगे पिता

तब कौन पुकारेगा बेटा

तब कौन लेगा भूख का संज्ञान

यह सोचते-सोचते

हर रात मेरे भीतर का कवि

कर लेता है आत्महत्या।



देवांश दीक्षित उन्नाव, उत्तर प्रदेश से हैं और पेट्रोलियम विश्वविद्यालय, देहरादून से केमिकल इंजीनियरिंग में स्नातक हैं। मूल रूप से हिंदी काव्य और गद्य लेखन में सक्रिय।



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