बहुत धीमे से जाऊँगा विस्मरण के पास: वसु गंधर्व की कविताएँ
- poemsindia
- Jun 8
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नींद में
मैं नींद में अपनी देह की सीमाएँ जानता हूँ
जानता हूँ कितनी दूर बढ़ाना है हाथ और कब समेट लेनी है अपनी आकृति
क्या कुछ सौंपना है इस अथाह विसर्जन को और क्या कुछ नहीं
मैं नींद में जानता हूँ मुझसे कितनी दूर है मेरे प्रियजनों की नींद
कितनी दूर है उनकी जागृति जो जागने वाले हैं पूरी रात, दुखों की उनकी कथाएँ, पीड़ा का उनका मर्म, आत्मा की उनकी खुरचनें जो बस उनकी अपनी हैं
कितनी दूर है यह पृथ्वी और उसकी अशक्त, क्षरित जिजीविषा
मैं नींद में अपनी हथेली बढ़ा कर जैसे छू सकता हूँ एक अकेले वृक्ष को जो धीमे से इसी पृथ्वी को ढंक रहा है अपने विरक्त झरने में
मैं मृतात्माओं को छू सकता हूँ, अपनी याद में फिर से दे सकता हूँ उन्हें जीवन और कह सकता हूँ उनसे अपने मन की बातें
मैं देख सकता हूँ कि अन्न उगाने के लिए कितनी छोटी है भूमि मेरे पास
त्याग सकता हूँ अजस्र बहती इच्छाओं के निकष।
संदर्भहीन प्रश्न
वह उदास आदमी क्या सोच रहा है
वह थका व्यक्ति क्यों इतना थका है
पत्थरों का कितना वज़न उठाया है उसके कंधों ने
वह औरत सचमुच रास्ता भूल गयी है, या उसके भटकने में छिपा है कोई अर्थ
वृन्त से गिरता पत्र विदा के कौन से सुर में गा रहा है अपना गीत
किस पतझर का ओज उसकी शिराओं में हो रहा है पैबस्त धीरे से
वह पृथ्वी क्यों घूमे जा रही है
अपनी तमाम निरुद्देश्यताएँ, निरर्थकताएँ लिए बदस्तूर
अगर एक भी चिड़िया के उड़ने में अर्थ छिपा है
अगर एक भी साँस निरुद्देश्य नहीं यहाँ
तो खुले क्यों घूम रहे हैं हत्यारे।
भूलो
बहुत ज़्यादा याद करना, आकस्मिकताओं को भी याद करना है
जिनकी नियत विस्मृति से ही बनते हैं कथाओं के ढांचे
बहुत ज़्यादा याद करना, उस अंधेरे को भी याद करना है, जो बीच में कभी फ़िसल गया था बाहर की ओर
और उस खुरदुरेपन को जिसने हमें सिखाया पीड़ा का दंश और ख़ुद हो गया समतल
इस पीड़ा की स्मृति में, बहुत ज़्यादा याद करने पर हमें याद आ सकती है हमारे जन्म की पीड़ा,
और उससे भी पुरानी, विकल अपनी मिट्टी कोड़ कर हमारे उगने की पीड़ा
जिसे भूलते हुए ही हमने गढ़े मनुष्यता के अपने आनुष्ठानिक सत्य
बहुत याद करना उन निरर्थकताओं को भी याद करना है, जिनका भूलना ही आकार दे सकता है याद के किसी भी भरोसेमंद शिल्प को
इस अनिश्चित, हड़बड़ाए शोर के बीच, हम बस पुकार सकते हैं, कहीं, किसी ओर
खोज सकते हैं दरारें जहाँ से शुरू हो सके भूलना।
प्रतीक्षा
यह सच है कि सबसे विकट दिनों में भी दुःख को देखना बचा रहता है, मुझसे अधिक दुःखी है कोई, इस आश्वासन को दुहराना होता है बार-बार मंत्र की तरह, याद करना होता है कि ऐसी ही विदीर्ण कथाओं ने बुना है इस पृथ्वी का अम्ल। यह एक तरह की लंबी, बिना ओर-छोर की प्रतीक्षा होती है जहाँ हम एक मृत सहयात्री की तरह दुःख की प्रतीक्षा करते हैं, अनुपस्थित संगी की तरह याद करते हैं उसकी आदतें, अनाथ बच्चों की तरह कलपते हैं उसका नाम दुहरा कर।
हम एक आश्वासन भर ही दुःख को देखते हैं, दूर से, हम बस जान सकते हैं कि वह दुनिया में है, बहुत अधिक और दुनिया हमसे बहुत बड़ी है।
बहुत दिनों बाद
एक दिन, बहुत दिनों बाद
तुम्हें याद करते हुए मैं पाऊँगा कि मैं जिसे याद कर रहा हूँ वह तुम नहीं हो
बहुत दिनों बाद, दिमाग़ में गड़बड़ा जाएँगी चीज़ें, किसी और वस्तु को पुकारूंगा किसी और नाम से, मृत लोगों से करूँगा बातें, दोहराऊंगा उनसे अपने मन के अनर्गल प्रलाप जो किसी जीवित व्यक्ति ने नहीं सुने कभी
बहुत धीमे से जाऊँगा विस्मरण के पास और उसे दूंगा अपने जीवन का सिंचित सबकुछ
अभी जो कुछ भी छूटता है हाथों से, लगता ऐसा ही है कि कुछ दूर चल कर पाया जा सकेगा उसे वापस, बशर्ते उतनी दूर जाने में थक न जाएँ पैर
लेकिन इस सब से निरपेक्ष, सीने में हहराता, बढ़ता आता है काला जल
झुक कर देखने पर दिखती हैं बस डूबी, पानी में गल रही वस्तुएँ।
स्वप्न
मुझे उस नींद का स्वप्न मिले, जो मेरी कल्पनाओं से भी सुदूर पर्वतों और पानियों की यात्रा किए यात्री की थकान की हो।
मुझे उस दिन की रात मिले, जिसमें एक बच्चा चिपटा रहे एक स्त्री की गोद में, शांत और स्निग्ध।
जिस जीवन को मैं नहीं जी पाया
मुझे उस जीवन की एक शांत मृत्यु मिले।
दोहराव
एक ही घाव को पुकारना नए नामों से
एक ही जलाशय के ठहरे पानी में धोना एक ही से वस्त्रों को
जब एक ही दिन की ठहरी धूप उकेरे उन पर एक ही से विचारों का निष्कलुष सूखा
भात की एक ही कटोरी में, भूख का एक ही निष्स्पंद टुकड़ा
और पुरानी सीलन के कोर से टपकती, एक ही दरवाज़े की प्रतीक्षा, जिसके पीछे हर बार खड़े वही बूढ़े लोग
त्यागना उन्हीं आश्वस्तियों को बार बार, हारना उन्हीं जगहों पर एक ही दांव
पुनरावृत्तियों के अपने उसी कस्बे में, उतनी ही अकुलाहट से धरना पाँव, उसी तरल उदासी में देखना कि पुनरावृत्तियाँ भी छीन लेती हैं स्मृतियों से उनका अम्ल
कि न कोई वृक्ष बचा सबूत, न कोई बच्चा।
चाभी
इन्हीं रियायतों में ज़िंदगी मिली हमें
लगभग अंधी आवाज़ों में, पुरानी आंधियों की खोखली यादों में।
इन्हीं फर्शबंदियों में हमनें दफ़्न किए अपने दिल
और उनमें पिरोए घायल चीतों के आंसू
और जब उनसे उठता गर्म धुआं फैल गया छतों पर, पुरानी दीवारों पर, तब हमें दिखी उस सिसकती औरत की शक्ल जिसका खुदा हुआ बदन हमारा वक़्त था।
हम ऐसी तत्परता से बंद थे कि भुलाई हुई चाभियाँ हमें खोज रही हों कि अभी उघड़ जाएंगे भीतर के रहस्य, बाहर आ जाएगा वह सब जो बंद है अंधेरे में।
कवि की बारे में:
वसु गंधर्व की कविताएं अनेक पत्रिकाओं और वेब ब्लॉग्स में प्रकाशित हो चुकी हैं। 'रचना समय' भोपाल से कविताओं की एक पुस्तक, 'किसी रात की लिखी उदासी में' प्रकाशित है। इसके अतिरिक्त, वसु गंधर्व ने संगीत के विभिन्न घरानों में तालीम भी प्राप्त की है।
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