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देह के भूगोल से परे - जय प्रकाश की कविताएँ

  • poemsindia
  • 4 days ago
  • 3 min read

देह के भूगोल से परे - जय प्रकाश की कविताएँ

उन दिनों


उन दिनों

कई बार हुआ

कि हम बोलते हुए अचानक चुप हो गए

और फिर चुप्पियों में सबसे अधिक बातें की!


उन दिनों

जब तुम नहीं थी पास

फिर भी

महसूस करता रहा

तुम्हारी उपस्थिति!


तुम्हारे देह का उत्ताप

मन के किसी अनछुए हिस्से

को उद्दीप्त करता रहा!


उन बचे दिनों में

चांदनी छिटक के आई थी

मेरे कमरें में

रोशनदान से


बसंत का कोई अवशेष

जो बच गया था

बारिश के बाद भी

बिछ गया था

चादर पर!


उन दिनों अकेला पन

किसी दंश-सा चुभता रहा

मन उघारता-सीता रहा

वर्जनाओं का निषिद्ध वसन!


उन दिनों

सोते हुए जगते से रहे

दीवार पर टिकी रही पीले रंग की

मद्धिम रोशनी

यादों और गीतों की आवृत्ति में

डूबता-उतराता रहा अंतस!


और मन में फूटती रही

कोई अधूरी कविता

एक टीस की तरह!


उन दिनों में

मन किसी बंद मकान के

दरवाजे के पुराना सांकल-सा

खुलता-बंद होता रहा

सिखाए हुए नैतिकता की दुहाई देते रहा

और शरीर अबोध कामनाओं की

तप्त भट्ठी में जलता रहा!



वह जाने कहाँ से आई थी


वह न जाने कहाँ से आई थी?

बारिश भी नहीं भिगो सकी

उसके वस्त्र!

पर वह मुसल्सल धूप में नहाई हुई थी


उसके बालों की लटों में बादल का एक टूकड़ा था

उसकी बस्ते में प्रेम कहानियाँ थीं

वह गिलहरियों व गौरेया के देश को

अपना देश मानती थी

उसके हथेलियों में गुलमोहर के बीज थे...


वह बहुत बातूनी थी

(ग्रीक माइथोलॉजी के इको की तरह)

वे अगस्त के दिन थे

इन दिनों कहीं दिखती न थी

शायद बादल, बारिश व

कविताओं में रहती थी।


वो फराज़ को पढती थी

खुद को इश्क़ का अशीर कहती थी

शायद वफ़ा से वैर था...


पर देह की आदिम कामनाओं व अबोध

ऐषणाओं से भली-भाँति परिचित

वह सिर्फ़ मन को छू लेने वाले को महबूब मानती थी।


एक प्रतीक्षाओं से भरे उदास शाम में उसको

मुझसे मिलना था

गिलहरियों पर लिखी एक

कविता सुननी थी

उसे एक गीत भी सुनानी थी


उस शाम जब-जब जंगल पलाश के फूलों से भरा हुआ था

मुझे उसकी माथे को चूमना था

उसे गुलमोहर के बीज बोने थे

पहाडियों की तलहटियों वाले रास्ते से

मुझे उसे अलविदा भी कहना था।


उस शाम पता नहीं कौन

न्याय निगमन लिख रहा था

हम दुबारा-चौबारा नहीं मिले

वह किसी नदी-सी बह गई थी

और मैं किसी पहाड़-सा थिर था

पर अलग भी कहाँ हो पाया

मैं थोड़ा-सा उसके साथ चला गया

वह थोडी़-सी मेरे पास रह गई!


विदा-गीत


यकीनन हम अलग होंगे

उस रोज

हम तुम्हारी नर्म उंगलियाँ को छुएंगे

और तुम्हारे हाथों की रेखाओं में

खुद को न पाकर उदासी और बेचैनी से भर उठेंगे!


पर हम शांत रहेंगे

हम तुम्हारे माथे को चूमेंगे

हम देह के भूगोल से परे जाकर

गले लगाएंगे

कुछ नहीं बोलेंगे!


मेरा यक़ीन करो

मेरी आंखों में आंसू

नहीं होंगे!


दूर एक देव है

जो सबकी नियति लिखता हैं

पर हम उससे कोई शिकायत

नहीं करेंगे!


हम चुप बैठेंगे

एक पुराने पत्ते पर

एक विदा-गीत लिखेंगे

और हवाओं को

सुपूर्द कर देगे!


जब हंसते, खिलखिलाते

किसी के साथ

अपनी दुनिया में चली जाओगी


तब हम थके कदमों से

अपना झोला उठाएंगे

और किसी अनजान-देश में

चले जाएंगे!



वो उम्र


वो उम्र तुम्हारे बारें में सोचने के लिए थी

इसलिए तुम्हें सोचा जी भर

एक सुन्दर कर्ण प्रिय गीत सुना

एक अच्छी कविता लिखी

एक बहुत सुंदर फूल चुना

एक प्रभावशाली पंक्ति को मन ही मन

दुहराया बार बार

जो पहुँच सके, तुम तक

पर सब रहा, अपूर्ण, अतृप्त,

इस समय अन्तराल में

समय के कैनवास से

मिट गए सारे निशान, सारे रंग

बस बचा रहा

किताबों में कुछ प्रेम पत्र

गहन एकांत में अंकित

तुम्हारे माथे पर एक चुम्बन

तुम्हारी अंगुलियों का आदिम स्पर्श

और तुम्हारी गलियों में हमारे पैरों के तमाम निशान!



पहली कविता


पहाड़ के एकदम पास नदी है...

नदी के एकदम पास-पास जंगल

पास पास पड़े हैं,


दो विशाल शिलाखंड...

जिस पर बैठे दो आदिम स्त्री-पुरुष

इतने पास कि महसूस कर सकते थे

एक दूसरे की आदिम गंध

आदमी ने धीमे से

स्त्री से कुछ कहा था

और स्त्री मुस्कुरा भर दी थी...

यह अस्तित्व की पहली कविता थी।



इको एंड नार्सिसस


(फ्रेड चैपल की कविता पर आधारित,

एक प्राचीन यूनानी कथा)


एक दिन प्रेम जब

ठुकरा दिया जाता है

तब जीवन के सपने अर्थहीन हो उठते हैं

तब कोई बहुत बातूनी पहाड़ी लड़की इको

खुद को एक अंधेरी गुफा में क़ैद कर लेती है

और फिर कभी महसूस नहीं करना चाहती

जीवन की आब को

धीरे-धीरे सब मिट जाता

बस बच जाती है उसकी आवाज

जो गूंजती रहती है किसी उदास कविता सी


आज भी गूंजती है उसकी आवाज

किसी उदास कविता सी

जो सुने हुए अंतिम पंक्ति या शब्द को दुहराते रहती है

(जंगल की देवी हेरा के शाप के कारण)

और एक बहुत सुंदर राजकुमार नार्सिसस

आत्ममुग्धता की खोल में लिपटा

पानी में ख़ुद का अक्स निहारता

एक फूल में बदल जाता है

हमेशा-हमेशा के लिए



जय प्रकाश

शिक्षा-एम.ए.,बी.एड.

प्रकाशन-विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ व आलेख प्रकाशित

संप्रति-अध्यापक

हाई स्कूल खरोखर,रफीगंज

औरंगाबाद,बिहार

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