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क्या यह वही आषाढ़ है — विजय राही की कविताएँ

  • poemsindia
  • Jul 16
  • 3 min read

Updated: Jul 17


क्या यह वही आषाढ़ है — विजय राही की कविताएँ

जेठ


गर्मी पड़ रही है

खेत में कमेड़ा काटती स्त्री की बुरसट

पसीने से निचुड़ रही है


सुलग रही है देग की तरह धरती

कीकर के झुरमुटों में हाँफ रहे हैं कुत्ते

बबूल तले जुगाली कर रही हैं बकरियाँ

पीपल नीचे लेटे हैं थके-हारे मुसाफ़िर


दूर-दूर तक कोई नहीं दिखता है

न ही सुनाई देती है कोई आवाज़

कभी-कभार ज़रूर दिख जाते हैं

डेक गीत बजाते हुए बजरी के ट्रेक्टर

इस दोपहर की नीरवता भंग करते हुए


तेज़ लू चल रही है

पिघल रही है सड़क की डामर

उसकी देह से नमक की तरह


लेकिन इन सबके बीच

बनास के तीरे पीलू पक रहे हैं

जिन्हें बच्चे अपनी झोलियों में

आहिस्ता-आहिस्ता रख रहे हैं



आषाढ़


अगर पहले इन दिनों

नहीं जा पाता था नानी के घर

भटकता रहता था रामा में दिन-भर


बबूल का गोंद और पातड़े बीनता

अरण्डी के बीज तोड़ता

खजूरों से ख़जूर गिराता

आमों से पके पीले आम

यही रहता मेरा रोज़ का काम


ये सब हैं अब भी अपनी जगह यथावत

अब भी औरतें-बच्चे दिख जाते हैं

मुझे यही सब करते हुए


एक हूक उठती है मेरे भीतर

लेकिन क़दम नहीं उठते हैं

एयर कंडीशनर कमरों में बैठकर

शरीर अकड़ गया है मेरा


बबूल के तने से चढ़ना

और लफ्फरों से उतरना

कहाँ अब मेरे बस का यह सब करना

अब तो सीढ़ियाँ नहीं चढ़ी जाती

लिफ़्ट को गाली देता हूँ

अगर ठीक नहीं मिली किसी दिन


महीनों बाद गाँव आया हूँ

नीम की छाया में बैठा सोच रहा हूँ

मुझे आश्चर्य हो रहा है

क्या यह वही आषाढ़ है

जो पहले हुआ करता था

क्या मैं अब भी वही हूँ

जो पहले हुआ करता था



श्रावण


जब बारिश होती है

सब कुछ रुक जाता है

सिर्फ़ बारिश होती है


रुक जाता है

बच्चों का रोना-धोना

चले जाते हैं वे अपनी ज़िद भूलकर

गलियों में नहाते हैं बारिश में देर तक


रुक जाता है

खेत में काम करता किसान

ठीक करता हुआ मेड़

पसीने और बारिश की बूँदें मिलकर

नाचती हैं खेत में


लौट आती हैं गाय-भैंसें मैदानों से

भेड़-बकरियाँ आ जाती हैं पेड़ों तले

भर जाते हैं तालाब-खेड़

भैंसें उनमें उतर जाती हैं तैरती हुई


रुक जाते हैं राहगीर

जहाँ भी मिल जाती है दुबने की ठौर


भाद्रपद


बिछड़ने के बाद भी

धड़कते सीनों में बची रहती हैं

मुलाक़ातों की स्मृतियाँ


आस टूटने के बाद भी

बची रहती है थोड़ी-सी आस

और ठहर जाती है थोड़े दिन

टूटे बेआस आदमी के पास


दहन के बाद भी बची रहती है

अग्नि

धुएँ-कोयले और राख में

जैसे मरण के बाद बचा रहता है

जीवन

किसी न किसी अंश रूप में

बारिश के बाद भी

बची रहती है बारिश

चिड़िया के पाँखो में

दरवाज़े पर बैठी जोड़ी आँखों में


बची रहती है

बारिश के बाद भी बारिश

पेड़ों की पत्तियों में

और कविता की पँक्तियों में



विजय राही, दौसा ज़िले की लालसोट तहसील से हैं। वे हिन्दी, उर्दू के साथ-साथ राजस्थानी भाषा में भी समान रूप से लेखन करते हैं। उनकी कविताएँ, ग़ज़लें और आलेख देश की अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉग्स और वेबसाइट्स पर प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी रचनाओं का अनुवाद अंग्रेज़ी, उर्दू, पंजाबी, मराठी और नेपाली भाषाओं में किया गया है। वे दर्जनभर से अधिक साझा काव्य-संकलनों में शामिल हैं। उनकी कविताओं का प्रसारण दूरदर्शन और आकाशवाणी से भी हो चुका है।


वे राजस्थान साहित्य अकादमी तथा रज़ा फाउंडेशन - इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली जैसे प्रमुख मंचों पर कविता पाठ कर चुके हैं।


प्रमुख पुरस्कार —


  • दैनिक भास्कर प्रतिभा खोज राज्य स्तरीय प्रोत्साहन पुरस्कार – 2018

  • कलमकार मंच, जयपुर का द्वितीय राष्ट्रीय पुरस्कार (कविता श्रेणी) – 2019


उनका पहला हिन्दी कविता संग्रह ‘दूर से दिख जाती है बारिश’ शीघ्र ही राजकमल प्रकाशन समूह, नई दिल्ली से प्रकाश्य है।


वर्तमान में वे राजकीय महाविद्यालय, कानोता, जयपुर में हिन्दी विषय के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत हैं।


संपर्क :

मोबाइल: +91 99294 75744

ईमेल: vjbilona532@gmail.com

7 Comments


Sagar sharma
Jul 18

Good poem sir

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Shivani
Jul 18

Nice sir.. All of your poems either in Hindi or English connects me to my roots. "Your poems feel like quiet revelations — each line is so thoughtfully composed, weaving emotion and insight with such graceful precision. There's a rare sensitivity in your voice that lingers long after the last word.”

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Guest
Jul 18

विजय राही आप की रचनाएं यथार्थ वादी व हृदय को स्पर्श करने वाली हैं। इतनी कम उम्र में इतनी ऊँची उड़ान मन को प्रशन्नता देती है।

मां सरस्वती की ऐसे ही कृपा बनी रहे आप पर।

डॉ के एल सिराधना

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Vinita badmera
Jul 17

भारतीय महीनों के साथ लिखी ये कविताएं नहीं हैं ,जीवन है, जो गांवों की मिट्टी में महकता है। छोटे शहरों में घुलता है। और कभी -कभी बदलता वक्त और परिवेश से पूछता है "क्या मैं अब भी वही हूं ,जो पहले हुआ करता है। " बहुत ही अनूठी कविताएं हैं ये कविताएं लंबे समय तक जेहन में रहेगी।कवि को खूब बधाई।

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VPM
Jul 17

शानदार कवि की जानदार कविताएं


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