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कहने और चीखने के बीच — योगेश कुमार ध्यानी की कविताएँ


योगेश कुमार ध्यानी की कविताएँ


इच्छाएँ


पुरानी अलमारी में रखे हुए वेद

मानो कहते हों, हमें पढ़ो


"सिर्फ तीन हफ्तों में लेखक बनें"

ऐसे विज्ञापनो की तरफ़ झुकता है मन

मैं सिलाई का उधड़ा धागा छुड़ाता हूँ

मेरी कमीज ऐसी ही इच्छाओं में उलझ कर फटी है


जी होता है उन अव्वल आए छात्रों में हो मेरा नाम

जो अखबार के प्रथम पृष्ठ पर छपे हैं


मैं सोचता हूँ , क्या इस जगत को

दो बाहों के घेरे में समेटा जा सकता है


"इच्छा जला कर राख कर देगी"

ऊपर आसन मे बैठा सन्त कहता है

नीचे जनसमूह से


उस एक क्षण में सब दाँतों में दबा लेते हैं जीभ

सोचते हुए

कितनी तो इच्छाएँ हैं

कितनी महीन होगी उनकी राख


"कर्म करते जाओ" के उद्घोष पर सब हाँ कहते हैं

और घरों की तरफ़ लौटते हुए सोचते हैं

गीली लकड़ी मे कितनी फूँक के बाद जलेगी आग

इस सबके बाद क्या गोल बन सकेगी रोटी

उसी स्वाद की जिसकी इच्छा है!



लुप्त होने से बचने के लिए


हर चीज़ में जिसे वह

अपनी चोंच से छूता है

धातु की ध्वनि है


कब ख़त्म हुआ सारा पानी

इतना लोहा कैसे उतर गया

कब यह जगह

जंगल से शहर हुई


उस मोटे तने का क्या हुआ

जिसके सुराख में छुपाये थे

रानी का चोरी गया हार

फूस का सिरहाना

और एक प्रेमी का प्रेमपत्र


सोचता है कठफोड़वा


इतनी मज़बूत करनी होगी चोंच

कि लोहे को कुतर सके

लुप्त होने से बचने के लिए....।



तुम ही लड़ो इस दुनिया-जहान से


तुम ही लड़ो इस दुनिया-जहान से

आसमान छूते दामों के बीच

गृहस्थी का कम-ज़्यादा देखो तुम


तुम ही निर्धारित करो

चाय में चीनी की मात्रा

दुनिया-समाज की काॅपी में

सही और ग़लत के लाल निशान लगाओ तुम

तुम ही उठकर कहो डाक्टर से

कितनी महँगी हो गईं है दवाइयाँ


चुनाव बाद के विश्लेषण से भरे हैं अख़बार

इन पर पन्ने के दुरुपयोग का अपराध गढ़ो

इनके औचित्य पर प्रश्न उठाओ


उठाओ अपनी दृष्टि और चारों तरफ़ डालो

कि कोनो से डरकर बाहर हो

धूल, अनिष्ट और अपशकुन


जो कुछ बिखर गया है,

चीजें जो भटक गई हैं

उन्हे उनकी जगह पर रखकर

सब कुछ को सुन्दर करो


बच्चों के कोमल मुख देखो

अपने टोटके और फू.. से भगाओ

उन पर पड़ रही बुरी छायाओं को


उठो और सम्भालो यह कारोबार

और मेरे सर को अपनी गोद में रख लो....।



ख़ुद लड़ो


खिड़की से आ रही है

जाते हुए सूरज की धूप

आँगन में टंगे कपड़े उसके लौटने से पहले

सूख जाना चाहते हैं


जहाँ किसी भी रोडलैम्प का उजाला नही गिरता

रिहायश के बीच उस खाली पड़े प्लाट की जंगली पत्तियाँ

उसे जी भर देख लेना चाहती हैं


इस संभ्रान्त रिहायश में दोपहर का सभ्य आदमी

अंधेरे में कितना जंगली हो जाता है

यह रहस्य जानती हैं पत्तियाँ


ठंड बढ़ रही है

रैनबसेरों में कम हैं लकड़ियाँ

पशु-पक्षी, फटेहाल और बेघर लोग

सब चाहते हैं कि वह रुके

लेकिन हर रोज़ सूरज

सरकार की तरह लौट जाता है

अपनी चुप में कहते हुए-

अपने-अपने अन्धेरों से तुम ख़ुद लड़ो।



पुराना शहर


शहर के भीतर बहुत सारा पुराना शहर है

पुरानी दीवारों से पलस्तर की तरह झड़ता हुआ

हर रोज़ होता हुआ कुछ और रंगहीन


पुराने मिस्री ने

किसी दोपहर अपनी उंगली से लिख दिया था

पुराने मकान की गीली सीमेंट पर सन् उन्नीस सौ छह

वह नही झड़ा, न गुम हुआ सदी-भर की जमी हुई धूल में


तिमंजिला हवेली के हिस्से की धूप

अब उस मेट्रो पर पड़ती है

जो गुज़रती है मकान की छत से इंच भर दूर

जिसके चलने पर हिलती है बालकनी

हिलता है हवेली का भविष्य


बदल गया है पुराने शहर से होकर जाने वाली

सड़क का नाम

उस सड़क से गुज़रती नई गाड़ियों को अखरती है

पुराने शहर की पुरानी गंध, छत पर सूखते पुराने खोल

और पुराने लोग


सड़क चौड़ाई चाहती है

बाज़ार चाहता है जग़ह

पर्यटन उस जगह पर संग्रहालय चाहता है

हर दृष्टि उस पुराने शहर को नया करना चाहती है


हर दिन के बीतने के साथ इतना तीव्र होता जाता है नवीनता का यह आग्रह

कि जल्द ही अप्रासंगिक हो जायेगा

पुराने शहर का नवीन के विरूद्ध विरोध


पुराना शहर चाहता है

कि अचानक किसी रात ढहा दिए जाने से पूर्व

विदा से ठीक पहले के क्षण में सहेज ले

पुरानी इमारतों के उन पत्थरों को

जिन पर किसी मिस्री ने अलसायी दोपहर में

बीड़ी पीते हुए उकेर दिया था

सन उन्नीस सौ छ....।



इन लोगों के साथ


समारोह के बाद जो उतार रहे हैं

सजावट का सामान

जो अपने ढोल को रख रहे हैं ज़मीन पर

कमर से खोल रहे हैं

चमकती धातु के भारी बाजों की चमड़े की पट्टियाँ


वह सब जो समारोह में अपनी पीड़ाओं को दबाए

अपने मालिक के कहने पर मुस्कराते खड़े थे

जिनके होने से दूसरों ने जिया था विलासिता का एक दिन


वे, जो जूठी थालियाँ समेट रहे हैं

बचा हुआ भोजन उन पशुओं के लिए इकट्ठा कर रहे हैं

पिछली रात आतिशबाजी के शोर से दुबक गए थे जो


धूल से सन गई पंखुरियाँ हटा रहे हैं

जो खाली कर रहे हैं हॉल को

कोने में पड़ी शराब की बोतलें बीन रहे हैं


थकी हुई बारात, तुम आगे बढ़ो

हर समय विभाजन रेखा के एक ओर

मज़बूत से डटे हुए

मिल जाओ किसी दूसरी बारात में


लेकिन मैं कुछ देर इस स्थल पर ठहरकर

इन लोगों के साथ

हँसना-बोलना चाहता हूँ .....।



कहने और चीखने के बीच


कहने और चीखने के बीच

शोर में शब्दों को उछलते देखता हूँ

देखता हूँ शब्दों से गिरते अर्थों को,

भीड़ के उन्माद में

उनके कुचल दिये जाने को देखता हूँ।


मेरे पास है एक बात

जिसे सुनने के लिए कोई मन नहीं उपलब्ध ,

हर आदमी किसी न किसी नारे को

दोहराने में ख़र्च कर रहा है

अपनी ऊर्जा ।


न कह पाने से घिर रहे मौन को

तोड़ने की कोशिश कर रही है

कुछ गले और कुछ होंठ से चिपकी

हमारी बड़बड़ाहट..........।



 

नाम – योगेश कुमार ध्यानी

सम्प्रति – मैरीन इंजीनियर

निवास – कानपुर

इमेल – yogeshdhyani85@gmail.com


परिचय – साहित्य में छात्र जीवन से रुचि,

कविताओं की किताब “समुद्रनामा” दिसम्बर 2022 मे प्रकाशित हुई है।

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