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गागर में सागर - नरेश सक्सेना का कविता संग्रह ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’

नरेश सक्सेना जी का यह कविता संग्रह ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ हमेशा से ही मुझे एक पुरानी और प्रचलित कहावत ‘गागर में सागर’ की याद दिलाता रहा है। जिस ढंग से नरेश जी ने अपनी कविताओं में एक-एक शब्द को सोच समझकर रखा है और अपनी हर कविता में अर्थ व्यक्त करने में पूर्णतः सफल हुए हैं, यह वाक़ई में सराहनीय है। अपने आस-पास घटती सूक्ष्म स्तर की क्रियाओं को मानवीय पहलुओं से जोड़कर काव्य निर्माण करना उनकी रचनाओं को प्रभावशाली और कुछ दुर्लभ बनाता रहा है।

नरेश सक्सेना

इस संग्रह में दी गयी कविताएँ न सिर्फ़ पढ़ने तक ही सीमित हैं, बल्कि कविता लिखने – सीखने वालों के लिए भी नरेश जी की कविताओं का ढाँचा (स्ट्रक्चर), उनका छोटी सी छोटी चीज़ को कविता की कसौटी पर बड़ा कर देना, इन कविताओं की यात्रा करते हुए सीखा जा सकता है। किताब में दी गयी पहली ही कविता ‘हिस्सा’ एक सचेत पाठक को उपमाओं पर सोचने का निमंत्रण देती है। कवि कितनी सरलता से आदमी में बहते खून और पसीने को दुनिया में बहते खून और पसीने पर ला खड़ा करता है।


जैसा कि आज हम एक औद्योगिक युग का हिस्सा हैं, चारों तरफ़ धातुओं की पैठ है, जिसे ‘धातुऐं’ कविता में बिल्कुल नए अन्दाज़ में प्रस्तुत किया गया है। जब कविता अपने निष्कर्ष पर आ जाती है, जिसकी अंतिम पंक्तियाँ कुछ यूँ हैं – “ मुझसे तो कई बार पूछ चुके हैं मेरे दोस्त कि यार नरेश तुम किस धातु के बने हो”, तब इस पंक्ति तक आते-आते हमें लेखक की वैचारिक परिपक्वता का भी धातु मानना पड़ता है । 

संग्रह में वृक्ष पर लिखी गयी कविताएँ हमें स्वयं से एक समाज के रूप में प्रश्न करने को मजबूर करती हैं। जिसमें से ‘उसे ले गए’ कविता मानो एक प्रकृति प्रेमी और वृक्ष संरक्षक के निजी हृदयाघात से उपजी कविता है। लेखक का भावनात्मक जुड़ाव खुलकर सामने आता है जब वह लिखता है- 

“ले गए आँगन की धूप छाँव सुबह शाम चिड़िया का शोर ले गए ऋतुऐं अब तक का संग साथ सुख दुःख सब जीवन ले गए।”

नरेश सक्सेना जी की रचनाओं में वस्तुएँ और उस वस्तु से उपजा आदमी, साथ चलते दिखाई देते हैं । ‘पहचान’ कविता में जिस आत्मीयता के साथ वे फूलों और फलों की मिठास की ओर लौटने का ज़िक्र करते हैं, यह उनके मिट्टी से बना शरीर, मिट्टी में ही लौट गया के विचार को और मज़बूती प्रदान करता है। प्रकृति और तत्वों पर आधारित कविताओं के संग ही ‘छह दिसंबर’ कविता लेखक की सामाजिक सजगता का प्रबल प्रतिनिधित्व करती नज़र आती है।

इतिहास के बहुत से भ्रमों में से एक यह भी है कि महमूद गजनवी लौट गया था लौटा नहीं था वह यहीं था सैकड़ों बरस बाद अचानक वह प्रकट हुआ अयोध्या में सोमनाथ में उसने किया था अल्लाह का काम तमाम इस बार उसका नारा था जय श्री राम। – छह दिसंबर

हम देख सकते हैं, इतने वर्षों बाद भी ये पंक्तियाँ किस तरह समाज में फैली धर्मान्धता पर एक कड़ा प्रहार करती है। जिन परिस्थितियों से हमारी वर्तमान राजनीति गुजर रही है, ऐसे में मात्र चालीस पचास शब्दों में ही घट रहे कुकृत्यों को इस सटीक ढंग से पेश करना हमें नरेश जी की काव्य प्रतिभा की ओर आकर्षित करता है।


कहीं पढ़ा था कि नरेश सक्सेना को वैज्ञानिक कवि भी कहा जाता है। यह इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने अर्जित किए गए वैज्ञानिक ज्ञान का अपनी कविताओं में बिल्कुल ही नए सिरे से प्रयोग किया है। इस संग्रह में उनकी कई ऐसी रचनाएँ हैं जहाँ आप विज्ञान और कवि के मिलन से उपजे विचारों का स्वाद चख सकेंगे। ‘लोहे की रेलिंग’, ‘काँक्रीट’,’रोशनी’, ‘सीमेंट’ इस श्रेणी की कुछ कविताएँ हैं।

आपस में सट कर फूटी कलियाँ एक दूसरे के खिलने के लिए जगह छोड़ देती हैं जगह छोड़ देती हैं गिट्टियाँ आपस में चाहे जितना सटें अपने बीच अपने बराबर जगह खाली छोड़ देती हैं जिसमें भरी जाती है रेत और रेत के कण भी एक दूसरे को चाहे जितना भींचें जितनी जगह खुद घेरते हैं उतनी जगह अपने बीच खाली छोड़ देते हैं। इसमें भरी जाती है सीमेंट सीमेंट कितनी महीन और आपस में सटी हुई लेकिन उसमें भी होती हैं खाली जगहें जिसमें समाता है पानी और पानी में, खैर छोड़िए इस तरह कथा काँक्रीट की बताती है रिश्तों की ताकत में अपने बीच खाली जगह छोड़ने की अहिमयत के बारे में। – काँक्रीट

हालाँकि इन सभी बातों के बावजूद भी मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूँ कि अभी बहुत कुछ है जो मैं आपके समक्ष नहीं रख पाया हूँ। ‘घास’ ‘दरार’ ‘मनुष्यों की तरह’ ‘यात्रा’ ‘घृणा से भरे इस समय में’ ‘पीढ़ियाँ’ ‘परिवर्तन’ ‘साम्य’ ‘नक़्शे’ ‘पार’ ‘लालटेनें’ ‘जूते’ ‘मेज़’ और न जाने कितनी ही ऐसी कविताएँ हैं जो पाठकों के मन में एक कुतूहल पैदा करने को तत्पर हैं। यह संग्रह हर तरह से अलग है। सरल शैली में गहन अर्थ समेटे ये रचनाएँ, साहित्य जगत में अपना हस्ताक्षर छोड़ती है।


चलते-चलते नरेश सक्सेना जी के संग्रह से ही कविता ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ का अंश और संग्रह की कुछ क्षणिकाएँ आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। 

क्या गुरुत्त्वाकर्षण के विरुद्ध उसके उछाल की सज़ा है यह या धरती से तीन गुना होने की प्रतिक्रिया कोई नहीं जानता उसकी प्राचीन स्मृतियों में नमक है या नहीं नमक नहीं है उसके स्वप्न में मुझे पता है मैं बचपन से उसकी एक चम्मच चीनी की इच्छा के बारे में सोचता हूँ पछाड़ें खा रहा है मेरे तीन चौथाई शरीर में समुद्र अभी-अभी बादल अभी-अभी बर्फ़ अभी-अभी बर्फ़ अभी-अभी बादल।
बहते हुए पानी ने पत्थरों पर निशान छोड़े हैं अजीब बात है पत्थरों ने पानी पर कोई निशान नहीं छोड़ा। – पानी
दीमकों को पढ़ना नहीं आता वे चाट जाती हैं पूरी क़िताब। – दीमकें
मुझे एक सीढ़ी की तलाश है सीढ़ी दीवार पर चढ़ने के लिए नहीं बल्कि नींव में उतरने के लिए मैं किले को जीतना नहीं उसे ध्वस्त कर देना चाहता हूँ – सीढ़ी
भयानक होती है रात जब कुत्ते रोते हैं लेकिन उससे भी भयानक होती है रात जब कुत्ते हँसते हैं सुनो क्या तुम्हें सुनाई देती है किसी के हँसने की आवाज़। – हंसी (आपातकाल के दौरान)

अंततः उपर्युक्त व्यक्त विचार मेरी निजी सीमित चेतना से जन्मे हैं। आप उनसे सहमत हो भी सकते हैं और नहीं भी। अतः आलोचनाओं का स्वागत है, क्योंकि यह काव्य संसार तो इतना व्यापक है कि यहाँ हर वक्तव्य एक क्षण जितना मामूली और क्षण में ही ब्रह्मांड समेटे जितना अनोखा है। धन्यवाद ।



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