
प्रकाशन वर्ष – १९८४ ( 1984 )
अनुवाद – सूर्यनारायण रणसुभे
भोगे हुए यथार्थ के दुःख की नींव में हमेशा एक चिंगारी होती है। यह चिंगारी दो मुही है, जो अगर अभिव्यक्त न हो पाए तो भीतर ही भीतर पीड़ित को भस्म कर देती है और यदि अपनी उचित दिशा पा जाए तो सृजन का रूप ले लेती है। ‘अक्करमाशी’ उसी सृजन की उपज है। एक सहा गया विद्रूप जीवन, जिसकी वीभत्स शैली ने लिंबाले को मराठी भाषा के प्रतिनिधि दलित लेखक की दहलीज़ पर लाकर खड़ा कर दिया।
‘अक्करमाशी’ एक मराठी शब्द, जिसका अर्थ है – एक ऐसी संतान जिसके माता पिता पारम्परिक ढंग से विवाह सूत्र में न बंधे हों, अर्थात नाजायज़ संतान। लिंबाले को इसी शब्द के संग दुनिया की दुनियादारी में समाज द्वारा दर्जा दिलाया गया था। उपन्यास के प्रारम्भ में हम देखते हैं कैसे लेखक महाराष्ट्र – कर्नाटक की सीमा पर स्थित गाँव की दलित बस्ती में अपना बचपन गुज़ार रहा है। शुरुआत से ही किशोर शरण अपने मन में कई जटिल प्रश्नों को लिए आगे बढ़ता है। एक मासूम बच्चे को जिसे यह भी नही मालूम कि उसका असल पिता कौन है, गंदगी से भरे मानसिक एवं भौगौलिक परिवेश में निर्वाह करते देख, मन एक असहायता से भर उठता है। किस तरह एक दलित किशोर अपनी असल पहचान की तलाश में झूझ रहा है, यह एक बने बनाए सामाजिक ढाँचे पर कड़ा प्रहार करता है।
“ कक्षा में पढ़ाया जाता था कि बच्चे ईश्वर द्वारा निर्मित फूल हैं। तो क्या हम भगवान् द्वारा निर्मित फूल नहीं हैं? वास्तव में, हम लोग गाँव के बाहर फेंके गए कूड़े-कचरे की तरह थे। एक ही स्कूल में अनेक जाति की इकाइयाँ थीं। हमारी बस्ती का सम्बन्ध गाँव से नहीं था; मानो गाँव का विभाजन कर हमें गाँव से तोड़ा गया हो। बचपन से मैं पराये की तरह ही रहा। उम्र के साथ यह परायापन बढ़ता ही गया था। मेरा बचपन मुझे आज भी भयावह लगता है।” – उपन्यास से
लेखक बताता है किस तरह सवर्णों ने दलित औरतों को अपने भोग की वस्तु की तरह इस्तेमाल किया। अपने धर्म कर्म की ददुंभी पीटता हुआ सवर्ण वर्ग, पर्दे के पीछे किस भद्दी विचारधारा का सामंत बना फिर रहा था, अक्करमाशी उसी परिस्थिति का कच्चा चिट्ठा है।
“ दुर्बलों पर आक्रमण करते समय, उनका शोषण करते समय सबलों ने हमेशा उनकी अबलाओं पर अत्याचार किये हैं, जिन्हें यहाँ की सत्ता, सम्पत्ति, समाज, संस्कृति और धर्म ने समर्थन दिया है; परन्तु उस स्त्री का क्या होगा? उसे तो वह ‘बलात्कार’ अपने पेट में बढ़ाना पड़ता है। उस ‘बलात्कार’ को जन्म देना पड़ता है। उस ‘बलात्कार’ का पालन-पोषण करना पड़ता है और यह बलात्कार एक जीवन जीने लगता है। उसी जीवन की वेदना इस आत्मकथा में है। मेरे शब्द मेरे अनुभव हैं। मेरे जीवन से अनुभवों को घटा दिया जाए तो क्या बचेगा ? केवल एक सजीव प्रेत… ” – किताब से लेखक के विचार
जाति भेद की जड़ें कितने भीतर तक व्याप्त हैं, इसे दिखाने के लिए लिंबाले अपने वर्ग का उदाहरण देने से भी नही चूकते। उपन्यास में एक जगह संतामाय नाम की औरत शरण के मित्र को मातंग समाज का होने के कारण पानी पिलाने से मना करती है और लगभग डाँटते हुए कहती है – “ अरे मातंग को साथ लिए क्यों घूम रहा है ? उसे लोटा मत दे। अपवित्र हो जाएगा। ” यह पंक्ति पढ़कर मैं यही सोचता रहा कि हम मानसिक स्तर पर इस हद तक दीन हीन हो चुके हैं कि हम स्वयं नीच और संताप से घिरे होने के बावजूद, अपने से भी एक पायदान नीचे का व्यक्ति खोज निकालेंगे, मगर किसी को समानता प्रदान करने में आज भी हमारी रूढ़ियाँ रास्ते में खड़ी हो जाती हैं।
“ प्रत्येक शहर जातिवादी। प्रत्येक गाँव जातिवादी। प्रत्येक घर जातिवादी। प्रत्येक मनुष्य जातिवादी। जाति ने यहाँ के लोगों को भीतर से इतना तोड़ दिया है कि कहीं पर ‘मनुष्य’ ही शेष नहीं है।” उपन्यास से
उपन्यास में प्रयोग की गयी भाषा कुछ सजग पाठकों को विचलित कर सकती है पर साथ ही लेखक अपने यथार्थ की भाषा से जिए गए दृश्यों को और ढंग से साझा करने में सफल हो पाता है। इस उपन्यास को मैं एक बार में पूरा नही पढ़ सका, इसके कई दृश्य और संवाद मन में अक्सर ऊब पैदा कर देते हैं आदमी के खोखलेपन के प्रति। और क्योंकि यह उपन्यास आज से सैंतीस वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था, ज़ाहिर सी बात है इस उपन्यास के पाठकों में अधिकतर ने लेखक द्वारा व्यक्त जीवन शायद ही देखा हो, और कई वक्तव्य शायद सुने भी न हों, और इसी तरह यह कृति आवश्यक हो उठती है। हमें जानना होगा, हमें मूल्यांकन करना होगा उस असमानता का जो महामारी की तरह खून के संग बहती चली आ रही है, जिसका टीकाकारण आज तक पूर्ण नही हो सका है। अर्थात एक नग्न कठोर सत्य समेटे हुआ अक्करमाशी दरसल एक व्यक्ति के लिए गाली नही, अपितु एक व्यवस्थता को गाली है। एक खीजे हुए और भयभीत शोषित वर्ग की पीड़ा से उपजी गाली !… जो साहित्य समाज के पाठकों से तथाकथित सभ्यता पर पुनः विमर्श की माँग करती है।