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उम्र की सीढ़ी चढ़ते हुए साथ छोड़ भाग निकलता है तरुण आदर्शवाद / देवांश एकांत की कविताएं

देवांश एकांत उन्नाव, उत्तर प्रदेश से हैं। पेट्रोलियम विश्वविद्यालय, देहरादून से केमिकल इंजीनियरिंग से स्नातक हैं। देवांश की कविताएं हमारे समाज की प्रतिकूलताओं को स्पष्ट तरीके से उजागर करती हैं देवांश नई धारा के वार्षिक साहित्यिक महोत्सव ‘उदयोत्सव २०२२’ में ‘नई आवाज़ें पुरस्कार’ से सम्मानित हैं।


Devansh Dixit Poetry

लड़की वर्जिन होनी चाहिए 


ये बड़े-बड़े घरों के

बड़े-बड़े शहरों के 

बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों के 

बड़े-बड़े विचारकों के 

बड़े-बड़े शिष्यों के

बड़े-बड़े शागिर्दों के 

बड़े-बड़े समाज के

बड़े-बड़े सपनों में छोटा सा सपना है 


ये भेड़ियों की मेमने को पाने की इच्छा है  

ये विचार की नस में ज़हर फैलाने वालों की 

हरियाली उगाने की बहकावे भरी राजनीति है


ये प्रेम से पहले बिस्तर की नरमी पर

बिछी कामना को 

मन ही मन मरोड़ने वालों का झूठा सच है 


ये औरत पर उत्पाद का दावा ठोकने वालों की

लंबी नियमावली का एक पवित्र नियम है 


ये गाली के कीचड़ से संबंधों को 

नंगा करने वाली मर्द आँखों का 

सुथरा-सा ऐनक है 


ये महिला की सीमाओं का वाटरप्रूफ़ है 

ये ख़ानदान की इज़्ज़त की फ़ॉल सीलिंग है 


ये मनोहर कहानियों में लिप्त लड़कों की खीज है 

ये ताउम्र पति से पिटी एक सास के मापदंड का बीज है 


ये चयन और चुनाव की 

कल्पना करती चिड़िया को 

पिंजरे में रखने का विकल्प है 


अंततः 

ये पुरुष की सबसे वृहद् थाती 

उसके ईगो को पोसने का 

एक और शिल्प है।



बहनों के लिए 


वो घर की विपदाओं में पेड़ की तरह थीं

समय की बिजली 

चुपचाप झेलती जातीं


जवान होते भाइयों 

और ग़ुस्सैल पिता की

ज़िम्मेदारियों के आगे

उनकी इच्छाएँ

अंतिम पायदानों पर होतीं

उन्हें नियमों की बेल से बाँधा जाता

घर की आबरू के लिए

वे उसमें लिपटती चली जातीं


घरवालों को भाया नही कभी मन ही मन

कि उनकी बहने करें किसी से प्रेम

खाये धोखें या हो जायें बेचैन किन्ही स्मृतियों में 

हालाँकि जब भाइयों और पिताओं ने 

बनाये अमुक सिद्धांत

वे भूल गये कि 

वे भी रहे होंगे किसी के प्रेमी, रक़ीब 

या कुछ और 


कभी-कभी बहन शब्द इतना अलग हो जाता

मैं भूल जाता कि बहने भी मनुष्य थीं 

उनकी भी पोटली होगी

जिसमें दाने होंगे स्वप्नों के कबूतरों की ख़ातिर

होगा कोई तिलिस्मी दरवाज़ा

जिसके द्वारा वे निकलना चाहती होंगी

किसी कविता, कहानी या फ़िल्मी गीत में 

कुछ छोटे मोटे जंगल, ग्रह, नक्षत्र उनके भी होंगे

जिसकी रक्षा करने के लिए ही शायद

वे बांधती रहीं हमारे राखी


वो माँ की परेशानियों का शीशा थीं

माँ उनके चेहरों में संवारती ख़ुद को 

कभी-कभी तो इतना संवारती 

कि भावुक हो करवा देती बहनों की शादियाँ

बिना उनकी मर्ज़ी 

मगर वो बहने थीं

जब जहाँ हमने उन्हें भेजा

वे चली गयीं हवा में विलीन संगीत की तरह

यह ज़िक्र किए बिना कि थोपे गये जीवन से पहले

उनका भी कोई और जीवन रहा होगा


वो चली जातीं

या भेज दीं जातीं नियमित समय के बाद

कहीं किसी पेशेदार आदमी के साथ

तीज त्योहारों पर लौटने के लिये

लौटने के लिये

कभी-कभार उस जीवन में 

जो आजीवन के लिए 

सरका लिया जाता उनकी थाली से 

और एक दिन 

सृष्टि के सृजन की 

महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी अपने सिर लिये

बहन ‘औरत’ करार कर दी जाती दूसरे आँगन में 

मसलन वहाँ भी लोग 

जाने कितनी दफ़ा भूलते रहते

कि यह जो आयी है 

वह एक बहन है ।



हम काग़ज़ के फूल 


हम काग़ज़ के फूल हैं

हम ख़ुशबू नही दे सकते

हमारे पास मत आओ

हम स्पर्श नही दे सकते

हमें छुओ नही


हम काग़ज़ के फूल हैं

हमे बस

चमकाओ

सजाओ

लगाओ तरह-तरह के रंग 

मोड़ो हथेलियों को कला की बाल्टी में डुबोते हुए


हमे पैदा करो दुनिया

हमे आकर्षक बनाओ

तुम्हारी टेबल क्लॉथ पर रखा जाना है हमे

चाय की चुस्कियों के साथ

माटी की नमी से जन्मे फूलदानों में 

भरना है नकलीपन हमे


हमे दूर से सुंदर, बहुत सुंदर देखकर

आकर्षण के सतही भ्रम में 

अभी भरनी हैं 

साँसें तुम्हें


पर हम काग़ज़ के फूल हैं

हमसे मन मत लगाओ

हम पत्थर के दूर के रिश्तेदार हैं

हम पर धूल जमेगी

मगर

हम मरेंगे नही


हम काग़ज़ के फूल हैं

हमे करने दो विमर्श

जीवन के उन असली फूलों को उगते देख

चुपचाप खिलते 

समर्पित होते 

झड़ जाते हुए 

हमे सोचने दो कि आख़िर 

‘महसूस’ होता क्या है ?


हम काग़ज़ के फूल हैं

हमे जीवन की असंभव प्रतीक्षा है 


हम तुम्हारी किताबों में 

छुप तो जायेंगे

मगर रंग नही छोड़ पायेंगे

तुम हमसे 

नही टोह पाओगे प्रकृति का मन


मगर मानो या ना मानो कमबख़्तों !

जब जब देखोगे हमे 

सजा धजा चमचमाता हुआ

आयें होंगे हम जब 

नए-नए दुकानों में

तुम फिर से मोहित होगे

जीवन के असली रस त्यागोगे

और दौड़ोगे

हमारी तरफ़

हमे ख़री-द-ने

एक दम खरी-खरी नोटों से 

उठा लाओगे हमारा खरा-खरा सौंदर्य


हमे क्या

हम काग़ज़ के फूल हैं

हमे इच्छाओं में मत ही लाओ

हमें अपने मकानों का झूठ मत बनाओ

हमे तो अब उनको दे आओ

जिनके भीतर किसी फूल को पाने की

एक सच्ची इच्छा है

अभाव के सागर में तैरती जिनकी मछली आँखें

शायद कर दें हमको जीवित !

हम काग़ज़ के फूल ।



चलायमान 


आख़िर तक आते-आते 

छोड़ ही देते हैं 

इच्छा-अनिच्छा नामक विकल्प

अपना-अपना रंग 


एक गति में जीवन जीते हुए 

परिवार के सदस्य

एक-दूसरे के लिये सर्किट की चिप जितने बचते हैं

जो दिनचर्या चलाने के लिये 

चले जाते हैं जीते

जहाँ औचित्य का वोल्टेज लगभग शून्य 


बेशक़ीमती उपकरण

अगले अपडेट तक खो देते हैं अपनी चमक

नये से नया बटोरकर 

उसके पुराने हो जाने का दुख

भीड़ को मार्केट के लिए मार्केट बना डालता है 

उत्पाद आवश्यकता से आगे बढ़

किसी तरह ख़रीदने की क्रिया बनकर रह जाता है 


बीस वर्षों से रोज़ एक ही कक्ष में 

लेक्चर ले रहे अध्यापक को 

मिलती है खबर कि माँ नही रही 

अगली रोज़ वह बाल मुड़वाये

अपनी रौ में पढ़ाता है 

मसलन यह वही माँ थी 

जिसकी आँखों में मृत्युशैय्या पर भी 

अपने लड़के की ऊँची मासिक आय की रोशनी थी 


प्रेम के लिये लड़ते-लड़ते

वर्षों पुराना प्रेम 

ख़ाक बनकर रह जाता है 

पर ना उलझन होती है ना खीझ

वर्षों से की गई उदासी की तैयारी

परिणाम में थोड़ी जड़ता और दे जाती है बस 


उम्र की सीढ़ी चढ़ते हुए 

साथ छोड़ 

भाग निकलता है तरुण आदर्शवाद

ख़ाली जेबों में पहचान टोहते हुए 

आदमी खुद को मना ही लेता है 

लताड़ से मिलने वाली रोटी के लिए


अपने सृजन से 

नयी दिशा के अन्वेषण में व्यस्त कलाकार 

बिक जाता है अपने सम्मान का भूखा मुँह देख 

और कहता है - अब के माहौल में वैसी बात नही रही 


सब कुछ जो प्रारंभ होता है रंग-ओ-नाज़ से 

तटस्थता के भरे पूरे सत्य में 

तिरोहित होता है 

जिसे नकारने के लिए यह चलायमान दुनिया

हमेशा से चलायमान नाटक रचती चलती है ।



बेहद से थोड़ा पहले 


माथे की नसों का ग़ुब्बारा बन उड़ना

वातावरण की धमनियों को चौका देता 

बदन की सिलवटों ने बिस्तर की सिलवटों को

जाने कितने अंतर से हराया हुआ था 

दोनों अंधेरों के भटके थे

एक दूजे में दियासलाई बोते थे


सर्दियाँ उनके छूते ही धूल धूसर अंधड़ हुई जाती थीं

वे इस तरह मरते थे स्पर्शों की भाषा में 

कि पूरा आसमान जीवित हो उठता हर बार


कुछ जल्दी ज़रूर थी चुंबनों में

वरना हर बार लहू का होंठों पर छूट जाना

कोई मामूली नज़्म थोड़ी है 


उनकी हथेलियों में 

एक मज़बूत ताला था

जिसकी चाभी कलयुग के अवतार आने में जितना समय बचा है

उतने समय के लिए कहीं गुमा दी गई हो

वे थामते उँगलियाँ और समय वहीं ढह जाता

न वह छोड़ता, न वह छोड़ती

हवा पानी बदलता 

भंगिमा नही बदलती


बारिश संग बहती साँस 

अगर हस्तक्षेप थी युद्धरत दुनिया में 

तो गुच्छे सी लिपटी चुप्पी 

समर्पण थी नश्वरता की स्वीकार्यता को

फिर भी बरगद की पाताल तक जाती जड़ों को 

उन्होंने अपना यार बना रखा था 

और पलता हुआ स्नेह समाधि लिये स्थिर था 


कितना कुछ विषयवार था जिसपर बहस कर सकते थे वे 

कितना कुछ जिसपर लंबी लड़ाइयाँ भी जन्मतीं

मगर पिघलकर एक होना उनके स्वभाव की प्राथमिकता था 


उधर एक समानांतर दुनिया भी थी

चापलूसी, मुद्रा, डील-डौल में लस्त पस्त

दुनिया जिसके आईने में झाँको 

तो वह चुंबकीय आकर्षण सा खींच लेता अपनी माया में

उन दोनों को पता था कि यह आईना संशय का समुद्र है

यह उन्हें भी किसी दिन खींच न ले अपनी भँवर में

इसलिए उन्होंने दुनिया को अपनी चहारदीवारों के 

बाहर रखा था 


ये बेहद से थोड़े पहले के दिन थे 

ये जीवन को उसकी असंभव सुंदरता में पा लेने के दिन थे 

यहाँ से बेहद में जाना दुर्घटनाओं को न्यौता था 

प्रश्नों की फ़ेहरिस्त थी

फूहड़ताओं का जंजाल था

जिसमें उन दो आत्माओं का दम घोंटना बड़ा सरल होता

ये बेहद के पास पहुँचने के दिन थे 

रोते-रोते गले लगना और गले लगते-लगते रोने के बीच

एक लंबा उपन्यास लिखा जा रहा था 

धीमी आँच पर पकती रोटियों सा मुलायम उनका अस्तित्व

सीमाओं को लाँघ जाना चाहता था

उधर ‘परिस्थिति’ नाम की संज्ञा 

दुनिया के आईने से निकल अपनी तलवार की धार 

पैनी करने में जुटी थी


एक दिन उनकी बे-हदों में

हदों के हवाईपोतों ने ज़ोरों का हमला किया

तब भी उन्होंने एक साथ ही शरण लेना ठीक समझा

इस बीच उन्होंने पाया कि हाथ अलग हो चुके थे

नज़र हथेलियों पर गई

तो दूसरी हथेली नही

उन्होंने डर को पकड़ा हुआ था

डर जिसकी गिरफ़्त ठोस होती जाती


लड़की ने दुखों को पैरासीटामॉल बना लिया 

लड़के ने आदम शांति को काउसिलिंग सेशन

आँखें मिल तो रही थीं पर टकराकर रोशनी नही

विदा की धीमी तरंग दिखाई देती


वे खाइयों में कूदना चाह रहे थे 

महासागरों में घर ढूँढ रहे थे 

उन्हें बेहद होने की इच्छा थी, मगर हद का अपना ही रौब था

उन्हें कसौटियों को तोड़ने का अनुभव नही, पर हौसला ज़रूर था

मगर ताने बाने का अपना ही इतिहास था


ये बेहद से थोड़ा पहले के दिन थे

ये दुनिया को जेब में रखकर घूमते-घूमते

दुनिया के पंजे निकल आने के दिन थे 

एक का हाथ दूसरे की कनखियों पर था

तो दूजे का हाथ पहले के कंधे पर

चीख़ते हुए यकायक चुप हो जाना ही वह अंतिम क्षण था

जहाँ से हदों को अपना बोरिया बिस्तरा बांध किसी और

कहानी का हिस्सा हो जाना था और दो मनों को

यादों का क़ब्रगाह बन जाना था


ये बेहद से थोड़ा पहले के क्षण थे

जिसके बाद उन्होंने हर क्षण यही सोचा

कि बेहद होना ही सही क्षण था ।

 



उसे चूमते हुए


हवा की बाँसुरी पर बज रहे थे होंठ

सभी रास्ते मुड़ गए थे एक दूजे की तरफ़

हम ख़ुद से होकर ख़ुद तक पहुँच रहे थे 

एक जंगल से जंगल-जंगल जा रहे थे 


कथाओं के पात्र थे हम

नगर देवताओं के आँगन के बच्चे थे हम 

जलचर थल पर आ गये थे 

हम जल पर चल रहे थे 

लोक अपने नियम त्याग रहा था

हम अपनी सीमाएँ भाप रहे थे 


मछलियों सा विचरण कर रहे थे 

समुद्र एक विचार का

जिसके वातावरण के बीच 

हम अपना वातावरण रच रहे थे

कुवासनाओं से बच रहे थे 

रोशनी के दर्पणों में छुप रहे थे

गिरजाघरों के घंटे भीतर बज रहे थे 


पीर की दुहाई जीवंत हो गई थी 

मुद्रा की बहस बेमतलब हो गयी थी

हिंसा को रोकने की

आदमी को बचाने की मुहिम 

पुनः सिंचित हो चुकी थी 

ज्वाल आदर्श का फूट चुका था

उसके होने से

सबको सब कुछ दे सकने का विचार

अपने शिखर पर जा चुका था 

देह की द्रव्यता असीम हो गयी थी 

उसे चूमते हुए 

दुनिया साहित्य हो गई थी।


 

कवि की अन्य कविताएं उनके सबस्टैक न्यूज़लेटर पर पढ़ी जा सकती हैं।

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