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आडंबर में प्रतिस्पर्धाएँ — अंजली विशोक की कविताएँ

  • poemsindia
  • Jul 17
  • 3 min read

Updated: Jul 18

आडंबर में प्रतिस्पर्धाएँ — अंजली विशाेक की कविताएँ

आडंबर में प्रतिस्पर्धाएँ


वह आक्षेप रुदन के समानांतर हाशिए पर

अनंत का मधुमास लिए

अतृप्ति और उत्तेजना की कठोर प्रत्यंचा के मध्य

साल के वृक्ष की भांति,

केंद्र की ओर उन्मुक्त था


विवेक और वासना बड़े लोभी शब्द रहे

अदम्य अंगीकार के प्रलोभन को।

सत्य था कि विपरीत प्रयोजन, बहुवर्णीय बहुलक हैं

अपितु, चुनाव स्थिर लोलक का था


गुरुत्वाकर्षण से अवमुक्त,

एक सपाट और अगाध ढहने को

समस्त लोलुपताओं से स्वतंत्र

अपेक्षाओं की धुरी पर अर्धवृत्तीय ऋजु कोंण हेतु


वह दुःखद वृत्तांत अंततः,

तिर्यक रेखाओं की भांति भेद गया

निश्चल विश्वास को

यकीनन, आडंबर में प्रतिस्पर्धाएँ

सदैव विजयी रहीं,

एक खोखले शंकु के आवरण को।



एकतरफ़ा प्रेम


अधखुली उन बांस की खिड़कियों पर

एक लोटा प्रेम उकेरा था

बिना बारिश दिए लौटते बादलों को

ताव जो देना था

कि भीनी ख़ुशबू

धूप के हिसाब-सी नहीं

इत्र की दहलीज़ पर रूठी

वीरान शीशियों को

गिलहरियों-सी मुस्कान दे सकती थी


कहीं प्रेम में तीसरी रोटी के तोड़ने को

कहीं वह मैली बुशर्ट का कॉलर चमचमाने को

और कहीं,

वो हर रोज़ भूलती उस तख़त पर पड़ी घड़ी,

ताव दिखाता वह बटुआ

बड़ा अक्खड़ था,

जो मेरी नर्म उंगलियों के बीच पत्थरों में अपना ख़ूबसूरत चित्र ढूँढता रहा


बिना सिल्फ़ का वह बेदाग रुमाल,

दियासलाई-सा लालटेन के लिए सिर्फ़ ज़रूरत मात्र था

हर रोज़ ज़्यादा नमक या ज़्यादा शक्कर

उस डब्बे में बंद पकवानों को कब तब संभालता


अफसोस,

बांस की वह खिड़की

फूल उठी थी

एकतरफ़ा सड़ने मात्र को।



वृत्ताकार मन


देखो,

मन की एक सड़क थी

थोड़ी पथरीली,

उस मुंडेर को भींचती

जालीदार तारों के बीच,


धूल के गुबार को

कहीं ग़मछे से ढांके

और कहीं बेखौफ़

चिलचिलाती धूप को सेंकती वह झुर्रियाँ

जो महंगे पाउडर से नहीं

उस लाल, भूरी, पीली और काली मिट्टी से मिलाने आई हैं

पुआल के ढेर को

मगर, वह शहरीकरण का बुलडोजर चल पड़ा है

चूल्हे पर फ़दकते भात की तरह

बस समतल करता हुआ

अज़ीब-सा शांत और बेजान

मकई से सूखती दीवारों पर,

इसक गढ़ते हुए


अंत में

एक बड़े पत्थर-सी चोट को कचोटती

छद्म एवं सौंदर्यीकृत

सरल रेखा के भ्रम में॥



वर्तमान


इतिहास और भूगोल के मध्य

स्थिरता का आंकलन

एक गहन अन्वेषण था

कुछ खोते और कुछ आगामी क्षणों को

व्यवहार में तिलांजलि देते वक्त

कितना कुछ भूलना, मगर सीखना भी था

उन रुखसती करती वैयक्तिक क्रांतियों से

कहीं दूर अनभिज्ञ, अशांत, अचिर परिचित परिपाटी

और,

असमतल जलवायु के आक्षेप्य

सघन मगर,

मध्यम तापमान को

जहाँ, वह नीर वाष्प और ठोस के अंतराल पर तरल भी हो सके

विचरण करती उन ऋतुओं के समान।

प्रतीति सत्य थी

कि इतिहास में कितना कुछ आत्मज्ञान है

जहाँ खोना एक सकर्मक क्रिया है

मगर, नई दिशाएँ सदैव ढूँढ ही लेती हैं

अनवरत और अनंत

परन्तु, उस शून्य से अभ्यस्त

विनम्रता के मानचित्रांकन को

वास्तव में,

सिर्फ मानव होना ही कठिनतम पर्याय रहा

भाषाई लिंग की भूत और भविष्य से अवमुक्त

वर्तमान की मुक्ति मात्र को।



निश्चल प्रेम


आबद्ध एवं आतुर

नैराश्य एवं उत्कंठा

जीवंत सौंदर्य एवं मर्त्य

एक अलंघ्य पिपासा

उस प्रतीक्षा की

जहाँ अनेक रंग और गंध मानवीय हैं

एकांत मृत्यु के अनघ आकाश को

वह प्रसंग अनश्वर ही रहा

अप्राप्य और अगाध समर्पण के मध्य

एक अकिंचन परिचय को

पुनः प्रेम भोर की अनवरत प्रत्याशा में।



अंजली विशोक उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले से हैं। इनकी आयु 28 वर्ष है। वर्तमान में ये रक्षा लेखा अनुभाग में कार्यरत हैं। लेखन में इनकी गहरी रुचि है, और वे पिछले तीन वर्षों से नियमित रूप से लेखन कर रही हैं।

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