top of page

आत्मा के कोलतार से रास्ता बनाती कविता


आदर्श भूषण
एक अचानक के बीच - आदर्श भूषण

साल 2023 के मध्य तक सोशल मीडिया से चर्चित कवियों को दो दौर में बांटा जा सकता है। पहला दौर वह था जिसमें प्रयोगधर्मी कवियों को सोशल मीडिया पर हाथों-हाथ लिया गया। वह दौर लगभग पांच, छः साल पहले बीता और दूसरा दौर यह है जिसमें विचारधारा केंद्रित कविताएँ लिखने वाले कवियों को सोशल मीडिया पर अधिक चर्चा मिल रही है। आदर्श भूषण सोशल मीडिया के पहले दौर के अनुरूप लिखने वाले कवि हैं जो इस दूसरे दौर में सक्रिय हैं। निजी तौर पर मुझे यह भी एक कारण लगता है कि आदर्श की कविताओं की अब तक उतनी चर्चा नहीं हुई जितनी होनी चाहिए थी। बहरहाल, दौर आते-जाते रहते हैं लेकिन कविता है जो टिकी रहती है। विपरीत दौर के बावजूद श्रेष्ठ कवि अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहते हैं। अलबत्ता, धीरे-धीरे ही सही।


जीवन संघर्ष को समझने और उससे सीख लेने के लिए कविताएँ एक शक्तिशाली माध्यम होती हैं। आदर्श भूषण की कविताएँ आम आदमी के जीवित रहने के संघर्ष की कविताएँ हैं। जीवन की उहापोह में लगे हरेक मानुष को, उसके हिस्से का गुलाब कवि दे देना चाहता है। आदर्श भूषण के यहाँ पानी सपना देखता है कि भिश्ती को नींद हासिल हो। आराम इसलिए क्योंकि उद्यम की भागदौड़ है। आम आदमी अपनी 'आत्मा का कोलतार' लगाकर अपने लिए रास्ते बनाने में जुटा है-


"बचेगा लेकिन

बचता-बचाता हुआ

रोटी कमाता हुआ

ताँगे दौड़ाता हुआ

पहिया घुमाता हुआ"


लेकिन इस उद्यम का भी कोई भरोसा नहीं। वह अस्थाई हो सकता है। उससे कमाया प्रतिफल कभी भी देशों के आपसी झगड़े की भेंट चढ़ सकता है-


"किसी भी देश के किसी भी घर के किसी भी कमरे में

कमाई हुई फुलकी को एकटक निहारते किसी भी आदमी के

चीथड़े उड़ा सकता है एक मिसाइल कहीं से भी आया हुआ"


आदर्श भूषण का कवि नगर में स्थित है लेकिन वह पूरी तरह नागरीय संस्कृति से संपृक्त नहीं है-


"शहर का तारकोल दरवाज़े की फांक पर

ऐसे चिपड़ता है, जैसे समय साल की लंबी सुई में

महीने का धागा फंसाकर

रफ़ू कर गया हो बिन फटे की औंधी आँख"


कवि जानता है कि अपने भीतर गाँव को बचाए रखना है लेकिन शहर की इस दिखावटी दुनिया में गाँव को उजागर नहीं करना है-


"धीरे बोलनी होती है अपनी गँवई बोली

धीरे-धीरे खिसकानी होती है थाली

धीरे फटकनी होती है चादर

धीरे माँगनी होती है नींद"


लेकिन इस बियाबान में जो खो गया है या जो मूलभूत ज़रूरतें बटोरते रह गया है, उसका ध्यान भी कवि को है। खोए हुए अवसरों का अफ़सोस भी कवि को है-


"कहाँ अभी बटोरने थी जिजीविषाएँ

अपनी अर्भक हथेलियों में

बचाना था मनुष्यतम भीड़ों में

खींचते हुए किसी संवेदनशील कवि की खोती हुई दृष्टि"


मनुष्य प्रकृति के अनंत संसाधनों से न केवल जीवनयापन का सहारा लेता है‌ बल्कि उनके सौंदर्य से अभिभूत भी होता है। वन्य जीवन, पहाड़, नदियाँ, झीलें, वृक्ष, फूल, पक्षी और प्राकृतिक दृश्य रंग-बिरंगे सौंदर्य का संगम हैं। जीव-जंतु, पर्यावरण और हम आपस में जुड़े हुए हैं। मनुष्य और प्रकृति के इस संयोजन को कवि समझता है और अपनी कविताओं में कोमलता से स्पर्श भी करता है-


"भाषा में जब वह पेड़ था

उसे याद था

किसी ने सहलाते हुए

उसे गुठली फोड़कर निकाला था

और कहा था ―

अहा! आम का पेड़"


आदर्श की कविताओं में एक तीली भी बिना कोई विध्वंस किए जलने की कामना रखती है। 'कागभगोड़े' कविता में कवि कहता है कि आदमी को नारा बनने से बचना चाहिए। वह आदमी बना रहे और आदमी ही लगे। 'लाठी भी कोई खाने की चीज़ होती है क्या' इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए कहती है कि लाठियों की लंबाई का अंतर दरअसल प्रशासन और जनता के बीच का अंतर होता है। प्रशासकों को आड़े हाथों लेते हुए आदर्श भूषण लिखते हैं-


"कभी-कभी संसद वे जगहें होती हैं

जहाँ अशांति के प्रस्ताव पारित होते हैं

और निराशाओं के अग्रदूत मेज़ पीटते हैं"


इन कविताओं में राजनीतिक प्रतिरोध उस रूप में है जिस तरह आम आदमी उससे टकराता है। कवि नेताओं को हर पांच साल बाद लौटने वाले सियार कहता है-


"नेता किस दल की टोपी पहनता है

क्या फ़र्क़ पड़ता है

सियार किस रंग के कपड़े पहनता है

क्या फ़र्क़ पड़ता है! "


आदर्श भूषण की कविताओं पर जब भी बात होती है, उनकी भाषा को रेखांकित किया जाता है। यह भाषा अधिकांशतः तत्सम और देशज शब्दों का अद्भुत मिश्रण होती है। आदर्श की कविता के अन्य संस्कार हिन्दी कविता की परंपरा के अनेक कवियों (मुक्तिबोध, विनोद कुमार शुक्ल, नवीन सागर आदि) से जुड़ते हैं। आदर्श जैसी कविताएँ आजकल के युवा कवियों के पास कम मिलती हैं। आदर्श की इस किताब की सार्थकता यह है कि वह इस किताब में आम आदमी की बात पाठक तक पहुँचा पा रहे हैं। उनका कवि कौशल पूरी पुस्तक में ख़ूबसूरती से ज़ाहिर हुआ है-


"भागते हुए आदमी की क़मीज़ पकड़ने पर

आदमी नहीं, क़मीज़ का टुकड़ा हाथ में आता है

भागता हुआ वक़्त अपना ज़ामा मुँह में दबाकर

गिरी हुई देहों के बग़ल से जी चुराकर सरसराते हुए

बिना किसी हंफहंफी के निकलता है"


इस संग्रह पर आलोचकों और स्थापित कवियों की टिप्पणियाँ आनी चाहिए। इस तरह समकालीन युवा कविता में तत्सम शब्दों को बरतने सहित अन्य विषयों पर सुधिजनों का मत जानने का अवसर मिलेगा। आदर्श के कवि को भी इससे भविष्य की दिशा मिलेगी।

 

समीक्षक : देवेश‌ पथ सारिया

पुस्तक: एक अचानक के बीच

कवि: आदर्श भूषण

प्रकाशक: प्रतिबिंब प्रकाशन

वर्ष: 2023

मूल्य: ₹208


Ek Achanak Ke Beech by Aadarsh Bhushan

161 views0 comments
bottom of page