अमलतास
गहरी रात के आख़िरी पहर में
दबी चीख से जब आँख खुली तो जाना
जीवन एक स्वप्न बन चुका है
जो स्वप्न में समाते हुए स्वप्न में मुग्ध है
बरौनियों की गर्जना में जो संवाद छुपा है
वह सिर्फ इतना तुतला पाता है
जो समझ के परे है किंतु
एहसास दिलाता है वापस जाती हुई लहर का
तीव्रता से जो रेत को अपनी ओर खींचती है
फेंकती भी वैसे ही है
मेरे खिंचने का इससे बेहतर प्रमाण क्या होगा?
स्वयं की अनन्यता के बीच
निरंतरता की आपाधापी में
प्रतीत होता है
मेरा अस्तित्व कहीं पीछे छूट गया है।
मैंने पीछे पलट पगडंडी की और देखा
तो खुद को कई बरस पीछे
अधमरी हालत में पाया
हताश आँखें द्वंद के कोलाहल में फँस
निर्जीव हो चुकी हैं
पैरों के भीतर रफ़्तार का हलाहल प्रविष्ट कर रहा है
और कमज़ोर पग बेड़ियों के जाल में
दम तोड़ रहे हैं
मैंने खोखले शब्द निकाल फेंक दिए
मरहम के लिए
पर मुझ तक पहुँचने से पहले
खा गया मेरे इर्द-गिर्द का अंधकार शब्दों को
क्या अब कुछ ऐसा है भी
जो मुझ तक पहुँच सकता है?
जान पड़ता है कि आगे चलने के साहस से
कहीं दुर्लभ है हार मान लेना
दुर्लभता भी ऐसी
जो न कोई सुनना चाहता, न मानना।
हार मानना कायरता का प्रतीक
उनके लिए ही हो सकता है
जिनको सब कुछ खो देने के मायने न पता हो
गर्मी में सँवरते अमलतास की तरह ही
निरर्थक है यह स्वप्न
मेरे बचे रहने का
रफ़्तार में,
अमलतास,
जो आखिर झड़ ही जाना है।
दुपहरियाँ
सुबह की हड़बड़ी और शाम की थकान के बीच
गर्मी की अलसायी हुई
भोली दुपहरियाँ
जब धीमी पड़ जाती है पृथ्वी की गति
और अटकी हुई दिखती है घड़ी की सुई
शांत पड़ जाती है दूर बसे गाँवों में,
मानव जीवन की हलचल
गूँज में, पंछियों की।
शहरों की भागती हुई जिंदगी में
दोपहर प्रायः विराम नहीं लाती
बस चलते रहने की धुन
खाए रहती है अंदर से
या तो रात की रोटियों की कमाई की फिक्र
या आगे निकलने की होड़
और कट जाती है हर दोपहर
शाम के इंतजार में
गाँवों की दुपहरियाँ,
कुछ अंतर्भाग सी प्रतीत होती है
जहा भोर की सुस्तियों को पलकों में ढोंने की बजाय
आराम की चादर उढ़ा कर
चल देते है लोग शाम की ओर
घर के बरामदे में लगे हुए झूले पर बैठकर
सुनाई देती है तो केवल पीपल और बरगद के पेड़ो पर से
अंगड़ाई लेते हुए पत्तों की आवाज़ें
और अचानक हवा का एक मंद झोंका ले उड़ता है
खुले हुए बालों और
स्थिर पड़े झूले को हौले से धक्का मार
जीवन की हड़बड़ी और थकान से बचे रहने के लिए
इंसान को चाहिए
गर्मी की अलसाई हुई दुपहरिया का
अंतराल सा विश्राम
घर काआँगन,
तरुवर की छाँव,
बदन को छू कर जाती हुई मंद बयार
और संभवतः एक गांव।
दीर्घ उदासी
मेरे अंदर की कविताएँ अब सूख चुकी हैं
ठीक उन्हीं नदियों की भांति
जिनके रास्तों पर अब बीते समय के निशान भर ही रह गए हैं
रेत में लिपटे हुए,
समेटे कहानियाँ वर्षों के अनाचार की
नदियों के सूखने की वजह पता करने में
सरकारों को लग जाएंगे न जाने कितने साल
कितने आयोग और समिति,
न जाने करने पड़ेगे कितने प्रदर्शन, रैलियाँ
फिर भी न तय हो सकेगा कि किस पर मढ़ा जाए इल्ज़ाम
खो चुकी सभ्यताओं का
मेरे अंदर सूखती कविताओं का
न कोई आंदोलन है, न प्रतिशोध
है तो सिर्फ़ एक दीर्घ उदासी,
स्त्रोतों के विलुप्त हो जाने की
सूखे से मरते हुए लोग,
बाढ़ की कामना भले न करें
सूखी चेतना के लिए अनिवार्य है किसी बादल का
भीतर ही भीतर फट जाना
किरण
फूटकर बिखरती सूर्य की पहली किरण
नभ को चीरते सहजता से खड़े
धौलाधार के पहाड़ों की लंबी कतार पर पड़
सहलाती है रात की ठंड में जकड़ी बर्फ़ को
पिघला देती है मेरे अंदर के आडंबर को
और जन्म लेती है एक किरण
मेरे अंदर भी
पोषित करती सुबह की छलकती धूप जिसे
खिलते हुए सूरजमुखी की भांति
अँगड़ाइयाँ लेते हुए जो
घोंघे की गति से घोलता है
सूरज के प्राण को अपने भीतर
मेरी चेतना को जाग्रत करती
मेरे अंदर के सूर्य को उपजती
सूर्य की पहली किरण
व्याधि का उपचार ही नही
जीवंतता का चमत्कार भी है
कवि के बारे में :
आकांक्षा पेशे से एक शोधकर्ता है। डीयू और जेएनयू से शिक्षा प्राप्त कर डेवलपमेंट एवं वाइल्ड-लाइफ सेक्टर में पिछले ६ वर्षों से अलग-अलग प्रोजेक्ट पर काम कर रही हैं। पिछले साल ही उनका पहला काव्य संग्रह "उड़हुल का फूल" प्रकाशित हुआ है।