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खोए सूरजमुखी का गीत — हर्ष राज कुमार की कविताएँ


Harsh kumar

खोए सूरजमुखी का गीत

 

जेठ के मारे ताकते है सूना अंबर

जमीन मुँह फाड़ती है

माँगती है

आसमान से गिरता जीवन,

जमीन पर मेढ़कों के सुर

तालाब से उठाते हैं राग, उनका

शब्द-दर-शब्द-गूँज वीरान,

पेड़ के गिर्द

एक अभावजीवी तोड़ अपनी नींद

जोड़ रहा अपना मधुर संगीत

‘खोए सूरजमुखी का गीत’

जिसकी दिशा गुम गयी गहरे

नीले आकाश में,

भिड़ गया वह किसी अपने से

उल्का पिण्ड में; मीलों प्रकाश वर्ष दूर

वही पिण्ड जिसके अणु मेल

खाते है भूलोक के सूरजमुखी से

दोनों जगह कविता मौन

दरारें बन फूट पड़ता वह पिण्ड

बार बार, अनगिनत टुकड़े

बह गया, अनगिनत प्रकाश वर्ष दूर

ठंडे काले अंधेरे की ओर

 

पर अब मैं

एक और नव-जीवन

को उपलब्ध हो पाऊँगा?

एक और जीव की मस्तक-रेखा पर

मेरी ऊर्जा हस्ताक्षर करेगी?

नहीं

मुझे जाना होगा ठंडे काले अंधेरेे में

खोई हुई है जहां कविता मेरी मौन

उसे निकालना था इस विरोधाभास से

फँसे हुए टुकड़े उसके सफ़ेद, ठोस,

जिसके पैरामीटर्स थे केवल

आज, आज और आज

साँसें छटपटाती, बाँह-पैर ढूँढते सहारा

कोई रोशनी उन पर पड़ी नहीं

डूबते शब्द बने एक और कविता —

 

मैं देशकाल में मिसफिट,

अपने नमकीन ग्लेशियर से

बूँद-बूँद नहाना मेरी कुदरत

मेरे खून की हर बूँद को ज़रूरी

खोपड़ी-भंजन; मेरे लिए नाकाफ़ी,

गर्दन की गर्द

उलझे बाल, बेढंगा दिमाग

सामाजिक तौर से अधिक कड़ुआ—

निष्कासित

खाली परतें जिनकी बद्दुआ से

कभी मैं डूबा नहीं,

माथे पर मौत का प्रश्न चिन्ह बाँधे

गाता हूँ,

‘खोए सूरजमुखी का गीत’

मुझ परित्यक्त को दिशा दिखाए कौन?

संरक्षित परतों का ढेर, मैं मरूँगा मौन।

 



कोख़ में अवसाद

 

मैं किसी कौवे की चोंच में

जीवन-मोती रख भेज दूँ

अलग परिवेश में,

यहाँ मानवता की कोख़ में

अवसाद की हड्डियाँ ठोस हो चुकी -

हर पल

लाइफस्टाइल,

वह कौवा मारा गया

कुटुम्ब से दूर

फड़कता पाया गया

टूटे-कटे पंखों से

जूझता है —

उसकी एकमात्र योग्यता

वह सिद्ध न कर पाया;

हर दिन योग्य पौरुष

तड़क जाता है त्याग करता

भीख माँगता

हर दिन योग्यता अपनी घिसता रहा;

तडक गई बिखर कर रोई

बिलख-बिलख

हज़ारों टुकड़ों से,

ग़ैर ज़रूरी माना गया —

सोलहवाँ संस्कार,

अनैच्छिक

समस्याओं की पाजेब

खनक कर टूट गई,

उस पौरुष का मोती गिर गया,

जीवन रेखा हिचकती है

मेरी क़िस्मत पर;

कौवा मार दिया इस पौरुष ने

पा लिया उस ने मोती का राज

 


संवाद

 

मुझे क़ैदखाने से बाहर करो,

मेरी अधनंगी जिंदगी

दरवाज़े पार

समस्याओं का नाड़ा खोल

निकली जाती है,

सुराई कमर से बाँधे हूँ जिससे

रिस रहा हैे मेरा ठंडा अवसाद

दीवाल की टक्करों ने मेरा सर खाया है

मेरे ख़ानदान का तिलिस्मी खून

नक्शा खैंचता अवसादों की गहराइयों में

दाँत निपोरता है मेरी ओर

बेहोश अधखुली आँखों से देखता;

बहता है वह

नदियों में बहता है ज्यों पत्थरों का चूना

करता है मिलावट,

खाता है पारदर्शिता,

देता है सतह का अलग रंग

वह जो ठोस नहीं पर

माँगता है ठोस संवाद-

जिए जाने पर

कमरे के इस या उस ओर

एक मौत

दूसरा अवसाद

बीच में रिसता है खून

बनता है नक्शा

 


भूत

 

उसे जीना है कल तक

खाली पेट,

कंधे पर बैठा

ईमान का भूत,

उसकी

चप्पलें डटी हैं रस्सी के टुकड़ों से

या की पूरी देह,

देख

वो जा रहा लंबे कद

चौड़ा माथा और नुकीली नाक ले

उसकी रेखाओं में पैसा पैदा होते ही

फाँसी खा मारा गया,

आहत मन व बदन।

खैंच नसों का तमगा बाँध

गला भींच

खोली हैं आँखें

भूत ने या भूख ने?

कहना मुश्किल है और

बेहूदगी भी;

अब वह बताएगा

ये ईमान वह बे-

इस तरह वह आज में मर जाएगा

पेट में हुड़दंग?

नसों की फड़कन?

तमगा खैंच मारा गया।

 

गले पर निशान

आत्महत्या के

भूत उतर गया

ईमान का,

उसे जीना था कल तक

गले की आख़िरी खकार में

हो गया वह पौरुष ठंडा,

गई प्रत्येक रेखा; सपाट हाथ, चेहरा

उतारा गया वह ईमानी तमगा

आखिर पिंड छूटा?

नहीं

वह पलंग के नीचे

चबा रहा मृत की कविताओं के शब्द

टपका रहा है लार

स्वाद ड्राफ्टों का लेता

दाँत पीसता रहा और खा गया

सभी कुछ

पोंछा मुँह

चल दिया बाहर,

सुथरी साफ़ शक्ल बनाए दुनिया का ईमान बनने

 

इस देह का क्या करें

उसकी कविता लिपट रही उससे

रोती है; छाती-पेट एक कर--

उस देह का सहारा कोई नहीं,

गरीबी, आहत कविता,

फिर भी दो कांधिया कम रहे;

ईमान, पैसा--

खड़े हैं बाहर भीत पर टिकाए कोहनी--

अगले घर के आदमी बने

भला आदमी था

स्वरों में उनके स्वर।

 


असुरक्षा के घेरे में

 

गूँगी सिसकियाँ और मैं

हाथ पकड़ चलते

अंधे से; जवाब-तलब

लड़खड़ाते पाँव ख़ौफ़ खाते

उतर रहें हैं सीढियाँ एक-एक--

हर सीढ़ी एक फ्लैशबैक

कचोटता भूतकाल;

आख़िरी दो सीढियाँ -

पहली;

पलकों पर नमक की परत

दूसरी;

आँखों में खून का घर--

ठोस दोनों,

अपनी असुरक्षाओं का श्रेय किसे दूँ?

गर्म साँसों का श्रेय किसे दूँ?

मृत्यु होगी

श्रेय किसे दूं?

आत्मदाह--

मेरा नहीं

इस बनावट का,

क्यों मारा गया वह

शरीर ज़िन्दा था हाँ देखा

सब ही ने था

मनोबल को टूटते बिखरते देखा

तुम ने भी था।

 

आज नहीं;

बहुत पहले सबके साथ

मुस्कुराते,

बाल काढ़ते और

अनगिनत क्रियाओं के दौरान

धीमे-धीमे,

बढ़ाते हुए एक-एक कदम

मृतकों से सुसज्जित धरातल;

उन सीढ़ियों से आए हम और

वह सभी कंकाल

जिनके मुँह अब भी मुस्कुराते हैं

ये सभी आत्मदाह नहीं

‘कोल्ड-ब्लडेड मर्डर हैं’

जिनके सड़ी खोपड़ियों से निकलती--

असुरक्षा की पस,

वह ज़िंदा हैं?

नहीं,

मृत्यु उन्हें चूमती नहीं

रहती है एक गज दूर

असुरक्षा के घेरे से बाहर

करती है इन्तजार

आत्मदाह होने का,

दर्ज़ होता है

पीड़ित का नाम

पता और मृत्यु का कारण

कारण : पैसा

हो गया एक व्यक्ति ग़रीबी रेखा से ऊपर।



 

हर्ष राज कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर कर रहे हैं। उनकी कविताओं के कहीं भी प्रकाशित होने का यह पहला अवसर है।

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