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सामान्यीकरण एवं अन्य कविताएँ / राहुल तोमर




सामान्यीकरण


संकेतों को समझना कभी आसान नहीं रहा

तभी तो हम कभी ठीक से समझ नहीं पाए आँसुओ को न ही जान पाए कि हँसना हर बार ख़ुशी का इज़हार नहीं होता

हमनें व्यक्ति को जीवित माना नब्ज़ और धड़कन के शरीर में होने से और यह उम्मीद रखी कि हमारा माना हुआ जीवित आदमी करेगा जीवित व्यक्तियों सा बर्ताव

हम चौंके इस बात पर कि एक जीवित व्यक्ति भी हो सकता है मुर्दे से ज़्यादा मृत

हम गुस्साए, खिसियाए फिर, फिर हो गए सामान्य…

न जाने कितनी लंबी फ़ेहरिस्त है उन चीज़ों की जो अब इतनी सामान्य हो चलीं हैं कि उनका ज़िक्र करना तक उबाऊ लगता है।



ओढ़नी


शरीर जब थकता है तो माँगता है एक नरम बिस्तर और थोड़ा आराम। सूखा कंठ माँगता है- ग्लास भर शीतल जल। यात्रा से थके हुए पैर मांगते हैं कुनकुना नमक घुला पानी। दिनभर पोथियाँ पढ़कर थक चुका मस्तिष्क माँगता है थोड़ी सी नींद। कविता लिखने से पूर्व कवि का शांत चित्त माँगता है थोड़ी-सी बेचैनी। समाज के बंधनों से बंधकर पृथक हुए दो प्रेमी, माँगते हैं थोड़ी-सी आज़ादी और आत्माओं का आलिंगन। वर्षों के व्यभिचार से थक चुकी व्यभिचारिणी, माँगती है खाली बिस्तर और अपनी करवटें। चार पहर के दिन में दो रोटी से गुज़ारा करने वाला मज़दूर माँगता है- एक और अदद रोटी, कचड़े से भरी टाट की बोरी ढोते-ढोते लगभग टूट चुके नाज़ुक काँधे माँगते हैं मुलायम टेक और किताबों की ख़ुश्बू। नाम और पैसे की लिप्सा में स्वार्थ और प्रपंच में लिथड़ा ज़मीर माँगता है- अंजुली भर ईमान का पानी। रोज़ ढलते जीवन की साँझ पर मैं बस चाहूँगा कविताओं की ओढ़नी जिसे ओढ़कर चैन से सोया जा सके।


प्रतीक्षा


उसकी पसीजी हथेली स्थिर है उसकी उंगलियां किसी बेआवाज़ धुन पर थिरक रही हैं उसका निचला होंठ दांतों के बीच नींद का स्वांग भर जागने को विकल लेटा हुआ है उसके कान ढूँढ़ रहे हैं असंख्य ध्वनियों के तुमुल में कोई पहचानी सी आहट उसकी आंखें खोज रही हैं बेशुमार फैले संकेतों में कोई मनचाहा सा इशारा उसके तलवे तलाश रहे हैं सैंकड़ों बेमतलब वजहों में चलने का कोई स्नेहिल सा कारण वह बहुत शांति से साधे हुए है अपने भीतर का कोलाहल समेटे हुए अपना तिनका तिनका प्रतीक्षा कर रही है किसी के आगमन पर बिखरने की।


घर


एक चिड़िया लौटकर आती है और पाती है एक खाली कोना वह देखती है उस कोने को हर कोने से इतने जतन के उपरांत भी उसे नहीं मिल पाता एक भी रेशा उसके घोंसले का। मैं भी कई बार जब लौटकर आया हूँ अपने घर मैंने हर बार ही पाया है उसे साबुत पर देहरी के भीतर रखते ही पांव महसूस करता हूँ उस चिड़िया की पीड़ा, उसकी बेचैनी मेरे घर के सही सलामत होने के बावजूद अचकचाता हुआ ढूँढता रहता हूँ वह रेशा जिसे मैं पहचानता हूँ।


चाबी


प्रकाश से बनी चाबी से हम खोलतें हैं अंधकार से घिरा दरवाज़ा और पाते हैं स्वयं को और गहन अन्धकार में एक नए अंधकार घिरे हम फिर खोजने लगते हैं एक नया दरवाज़ा जिसके मिलते ही हम वापस दौड़ पड़ते हैं प्रकाश की ओर हासिल करने एक और चाबी

वर्षों की भागादौड़ी के बाद भी अंततः बस यही जान पाते हैं

कि सारी चाबियाँ प्रकाश से बनती हैं परंतु वे जिन दरवाज़ों को खोलती हैं वे सब के सब अंधकार की ओर खुलते हैं


धूप


जितनी भर आ सकती थी आ गयी बाकी ठहरी रही किवाड़ पर अपने भर जगह के लिए प्रतीक्षित

उतनी भर ही चाहिए थी मुझे बाकी के लिए रुकावट थी जिसका मुझे खेद भी नहीं था

दरवाज़े की पीठ पर देती रही दस्तक उसे पता था कि दरवाज़ा पूरा खुल सकता है

जितनी भर अंदर थी उतनी भर ही जगह थी सोफ़े पर… उतनी ही जगह घेरती थीं तुम

उतनी भर जगह का खालीपन सालता है मुझे जिसे भरने का प्रयत्न हर सुबह करता हूँ।


 


राहुल तोमर

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