"जम्हाई लेता हुआ
सावन नाम जपता है
गर्मियों के नाम पर थूकता है"
"गर्मी बहुत है
दूध की नींद उड़ चुकी है
आज खाने की थाली में दही भी होगा"
"ये अंश जो अपने आप में एक कविता हैं, बड़ी कविता का हिस्सा हैं और यह कविता(एँ) हैं अभिजीत की जो अपने विविध अनुभवों को एक अनूठे ढंग से जादुई कविताओं में परिवर्तित करते हैं। शब्द-दर-शब्द जैसे कोई कूची पाठक के मनस-पटल पर चलती हुई अनेक चित्र उकेरती है और हमें अनायास ही आभास होता है कि हम उन्हीं चित्रों में कहीं हैं।
साधारण दिनचर्या को यहाँ इतनी खूबसूरती से बरता गया है कि एक नीरस दैनिक गतिविधियों का क्रम एक असाधारण दृश्य के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जीवन के साधारण और नीरस दृश्यों को ख़ूबसूरस्ती से कविताओं के धरातल पर न्याय दिलाती यह कविताएँ आपके समक्ष प्रस्तुत हैं।"
1. सिएस्टा
दूध के भगोने में
बिल्ली का ख़्वाब सुस्ता रहा है
अम्मा का गला नींद में
न तो चर्बी उठा पा रहा है.
न ही उसे बिठा पा रहा है
रेडियो पर विविध भारती की परछाई
लंबे तान में ढल कर रह गयी है
तेज़ ध्वनि में अधनंगे शब्दांश
नीरस समाज की तरह ही
कोरस से कोरस तक के घुम्मकड़ हैं
समाज का विचलित होना
दरवाज़े से बड़ी भगदड़ में
हाँफता हुआ चप्पल बिना उतारे
अभी-अभी आया है
और थके हुए पंखे के नीचे
धीमी आँच की तरह न तो ढंग से
जल ही रहा है न बुझ ही रहा है
घर का उदार स्वभाव
क्रोध को सुला देता है
घर के कोनों में अजीब-सा अँधेरा है
घर के कोनों में झगड़े और झाड़ू
दोनों ही दोपहर के आने पर
अपना-अपना धूल-धक्कड़ लिए
अपनी-अपनी ख़राश बुदबुदाते हुए
चार बजे की चाय तक उबासी के फ़र्श पर
हाथ-पैर फैलाकर पसर गए हैं
खिड़की पर बनते-बिगड़ते साये
सूरज के अंदर उमड़ रही नदियों के संकेत
किताबों के अधूरे रह जाने की व्यथा
फूलों से उड़ता हुआ आया है
मुरझाना उनका
माथे पर
यहाँ माथे पर
हथेली रक्खे हुए
सरदर्द का कहना मानता मन
जम्हाई लेता हुआ
सावन नाम जपता है
गर्मियों के नाम पर थूकता है
दूसरी तरफ़ कच्चे आम की छुरी
जीभ काटती है
कल्पना गाली खाती है
मुँह में सूरज की एक नदी
जलप्रवाह लाती है
जिसके चलते गला सूखा रह जाता है
साँसें बासी हो जाती हैं
खाना बनने की योजना में
प्याज़ और लहसन का स्वाद हाथ को
काम में लगाये रखता है
तो कलाई ब्लेड से
गर्दन दुप्पटे से बच जाती है
नानी माँ की नाक से गाने की आदत
अब मेरे मुँह तक आ चुकी है
यानी ये कि मैं सब्ज़ियों से बड़बड़ाया करती हूँ
अम्मा सो रही हैं
पिता सर झुका कर यूँ बैठे हैं
कि यह कह पाना कठिन है कि पिता बैठे हैं
या अम्मा का जागना
लहसन के झाग से मैं छींक पड़ती हूँ
प्याज़ कपड़े उतारे हँसती है
तो मैं भी झेंपकर किसी प्रियसी जैसी
भरी हुई बोझल आँखों से
हँस पड़ती हूँ
रो पड़ती हूँ
इतने में किसी का फ़ोन बज उठता है
पिता अचानक ही
आत्मा के बिना ही
घर के बाहर निकल पड़ते हैं
चप्पल आरामकुर्सी के नीचे
पूजाघर में फलों जैसी रक्खी रह जाती हैं
इतने में अम्मा कहती हैं
'अरे क्या हुआ, कौन मर गया'
इतने में
बिल्ली का ख़्वाब टूटता हुआ देखती हूँ
पाती हूँ स्वयं को घूरते हुए
दूध के भगोने में
गर्मी बहुत है
दूध की नींद उड़ चुकी है
आज खाने की थाली में दही भी होगा
2. सफ़िया के लिये
मेरे चराग़
मेरे सीने पर रौशनी बार न होने दो
मेरे हाथ सज़ा से खाली न हों
लफ़्ज़ पर ख़ौफ़ तारी न हो
बख़िया-गरी कहीं-सी न दे
लब-ए-ज़ख़्म से कहीं पी न ले
ज़हन एक-आध और ज़ख़्म
हवस के पाँव में कहीं न पड़ जाएँ
छाले कि मेरी रूह पर अभी
कोई दाग़ जगह पाने न पायेगा
मेरे बदन में अब और कोई सदमा
आने न पायेगा
मेरे ख़्याल अंदोह से हम-बिस्तरी में रहें
मेरे होंठों के तमाम ख़्वाब
उसके नाफ़ के क़रीब
मेरे दिसम्बर के ख़म-ओ-पेच
उसके बिखरते बालों की फ़रवरी में रहें
उसके नाज़ से मेरे ग़म पर
धूप का साया उतरे
नयी ज़मीनें नये रदीफ़ नये क़ाफ़िये
आयें और आ कर मेरे लहजे से मुख़ातिब हों
मैं अपने वुजूद पर
ना-वाजिब फ़ैसले देता फिरूँ
फिर ये कि वह मुझे देखे और फ़ैसले वाजिब हों
मेरे अंदर अंधेरे हाज़िर हों
मेरे अंदर तिलिस्म की नदियाँ फूटें
मेरे अंदर शहर इकट्ठा हो और छूटने न पाये
मेरे अंदर काँच की दो तश्तरी में
दो चाँद आ जायें
और रात टूटने न पाये
तस्वीरों से काले-सफ़ेद रंग उठें
चादर पर सिलवटों के सिलसिले हो जाएँ
दरवाज़े खोल दो, मेरे हज़ीन शायर
हमारे दरवाज़े मिलें आज
और क़ाफ़िले हो जाएँ
मेरी कलाई से उसके नाख़ून का
फ़ितूर मत उठने दो
मेरी रगों पर उसकी चुभन का
क़र्ज़ रक्खा है
मेरी ज़बान से ' अर्क़-ए-बहार छूटता है
मेरी ज़बान पर उसका
आदाब ' अर्ज़ रक्खा है
अभी इस शब
अज़ाब के माथे पर नूर हाथ फेरेगा
अभी से इन हथेलियों को कमज़ोर मत करना
अभी से घुटने पर बर्फ़ न पड़ने देना
इन्हें ठंडा होने से बचा लो
इन्हें अपने हौसले से
ये फ़साद गुज़ारना है
फ़साद गुज़ारना है
मेरे चराग़
सीने पर रौशनी बार न होने दो
3. तुम्हारी, तवायफ़
स्पॉटीफ़ाई पर साथिया का एक गीत
इन लाल-हरे पर्दों से छन कर
गलियों में चाँद है
मेरी हथेलियों की दस्तरस में मेरी रान है
मेरी रान से लग कर तुम्हारे ख़त
सिक रहे हैं
मेरी फ़रवरी तुम्हारे गले पर
जून हो रही है
मुझसे छिड़ चुके तुम्हारे हर कुर्ते पर
मेरी बे-अदबी का अर्क है
मेरी कमर से लगी हुई बची हुई साड़ी
तुम्हारे नाम के खुलने पर
खुलने लगती है
गाने हल्के पड़ जाते हैं
पाँव में सारा ख़ून उतर आता है
हलक सूखे सेब की तरह अपनी सुर्ख़ियों को
कसकर पकड़े रहता है
मेरा एक हाथ मुँह में फैल जाता है
और दूसरा मेरी रान पर मुँह हो रहा होता है
मैं, तुम्हारी याद में
टूटता खँडहर हूँ
तुम्हारी यादें इन खंडहरों के कोनों में रह रहीं
सर्दियों की तरह है
मैं अपनी साड़ी अपनी ओस ओढ़े रहती हूँ
मैं अपनी सीलन में सोयी रहती हूँ
मेरी एड़ियों में कोठे की ठंडक जमा हो चुकी है
आसमान ताकते हुए
कई सुबहों तक
मैं ने इन्हें नंगा रक्खा था
न किसी बूंद का आना हुआ
न तुम ही आये
एड़ियों में पड़े-पड़े ठंडक के दीमक
मेरी रहगुज़र खा रहे हैं
तुम तक जाने वाली सड़कें शहर निगल रहा है
और इस तरफ़ मेरे दिल में
तुम्हारा दिया हुआ घर पल रहा है
तुम्हारे दिए हुए फूलों में सारे गीत भर देती हूँ
इस तरह उनके मरने पर
ख़ामोशी की नींद नहीं टूटती है
नहाते हुए तुम्हें याद करती हूँ
पानी लोरी की तरह
बदन पर ताज़गी सुला देता है
ढेर सारी नज़्मों को साँस आती है
और इस तरह
एक और रात गुज़ार लेती है
तुम्हारी,
तवायफ़
अभिजीत लखनऊ में रहते हैं। अंग्रेज़ी साहित्य से एम०ए० के साथ-साथ रंगमंच, सिनेमा और संगीत की तरफ़ बेहद दिलचस्प रुझान। प्रेम को कविता-लेखन का एकलौता स्त्रोत मानते हैं।